मंगलवार, 3 अगस्त 2021

ओमनीरव और मुक्‍तक लोक

 इस मंच पर आज एक ओम नीरव के स्वागत की पोस्ट  देख कर यह कथन प्रमाणित हो गया कि दो राजा कभी भी एक होकर सैनिको व अधिकारीयों की बलि चढ़ा सकते हैं।
महज 1 साल की साहित्यिक उम्र थी मेरी 05 जुलाई 2014 को मेरा साहित्यक जन्म हुआ था। 14 मार्च 2015 को पहला सम्मान और अप्रैल में कवितालोक से हिसार में सम्मान। तीन मंच से जुड़ा था मैं, मुक्तकलोक, कवितालोक और उत्कर्ष मंच। सब कुछ ठीक चल रहा था। आदरणीय डा. राम कुमार चतुर्वेदी जी द्वारा गहमर का कथित कार्यक्रम भी हो चुका था।  23 अक्टूबर 2015 को शुरू हुआ कवितालोक, मुक्तकलोक और उत्कर्ष मंच का विवाद, वो भी एक सम्मान को लेकर।  मैनें इस आधार पर कि '' किसी ऋअ रःसम्मान को लेकर उसकी फोटो लगाकर विवाद उचित नही'', वह सम्मान बहुतो को मिला होता है सबकी प्रतिष्ठा जायेगी, पोस्ट का विरोध किया।
क्या नहीं सुना? क्या नहीं सहा? मैं नवप्रवेशी अपनी समझ से नीरव को गलत पाया और मुक्तकलोक से जुड़ा रहा। एक बार नहीं दो बार नही जब जब मुक्तकलोक के आयोजन हुए  अपनी क्षमता से बढ़ कर किया। विकलांग के बावजूद सर पर किताबें ढोई। प्रो.विश्वभर शुक्ल के साथ रहा। दोनो मंचो में दाँत काटी दुश्मनी रही। दोनो क्या तीनों में। राजपूत जिसके साथ हो जाता है मरते दम तक रहता है। मैं कभी कवितालोक में फिर नहीं गया।  आये दिन इन मंचों के विवाद ने मुझे उग्र बना दिया। प्रो. शुक्ल  नीरव से प्रतिस्पर्धा करते और मैं अंधभक्त की भाँति एक पैर पर चलता और उनकी सुनता। मेरा नाम विवादों में रहा लेकिन कोई विवाद आज तक ऐसा नहीं था जिसमें दोषी या आरोपी मैं था।
आज जिस प्रकार मुक्तकलोक ने ओम नीरव को बुलाया है, हम जैसे लोग जो अपना सब कुछ गवाँ कर भी साथ चल रहे थे, उनको उनकी औकात समझ में आ गई। आज 5 साल हो गये मुक्तकलोक के दुश्मन को अपना दुश्मन और दोस्त को अपना दोस्त समझा।
मगर मैं भूल गया कि मैं तो एक प्यादा हूँ। राजा जब चाहे मार देगा।  आज मेरे पास न धन है, न बल है, न मान है न प्रतिष्ठा है, मगर हौसला है। विरोध सहने की ताकत है।
अपने रास्ते खुद बनाने और ईमानदारी से निस्वार्थ सेवा की खूबी है। मैं भी चाहता तो सैकड़ो सम्मान, मंच , कई पुस्तको का प्रकाशन, पत्र-प्रतिकाओ में छपने की बाढ़ , बहुत कुछ अपने लिए कर सकता था। मगर हर साल 1.50 से 2 लाख अपनी गाढ़ी कमाई साहित्य पर खर्च किया।
कुछ लोगो के साझा संकलन का पैसा जरूर मेरे पास है, परन्तु दो वर्ष में 40 लाख रूपये से ऊपर की व्यवसायिक क्षति होने से उन्हें अभी वापस नहीं कर पा रहा हूँ।
इससे अधिक मैनें साहित्य जगत से कुछ नहीं लिया। मैं नही जानता कि प्रो विश्वभर शुक्ल की ऐसी कौन सी मजबूरी है जो उन्हें गिरना झुकना पड़ा। आज मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि मैंने प्रो साहब को पहचाने में भूल किया।
आज की यह मेरी पोस्ट मुक्तक लोक में अंतिम पोस्ट है। इसके बाद मैं मुक्तकलोक के इस जंगल को छोड़ दूगाँ। लेकिन इतना तय है कि अब कोई ओम नीरव कोई विश्वभर शुक्ल जैसा आस्तीन का साँप मुझे डस नहीं सकता, विश्वास के अँधेरे में रख नहीं सकता।
मैं आजाद शेर था, आजाद शेर हूँ, आजाद शेर रहूँगा..वो तो  राजाओ के विश्वास व प्रेम के जाल में फंस गया मगर अब किसी राजा ने माँ का दूध पिया हो तो फंसा के दिखाए।
आज से मुक्तकलोक का खुला विरोध, हर कदम पर विरोध।

जय हिंद जय भारत
अखंड प्रताप सिंह, गहमर गाजीपुर उत्तर प्रदेश
9451647845

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