मेरी ट्रेन आउटर पर खड़ी थी, मेरी मंजिल आ चुकी थी, तीन दिन के सफर में ट्रेन की सीट ही घर हो गई थी, इस लिए सामान समेटने भें भी लगा था। निगाहें खिड़की के बाहर जाती तो गगनचुंबी ईमारतें शहर की तस्वीर बया करती। ट्रेन अब खुल चुकी थी, मैं भी सामान समेट चुका था और खिड़की से बाहर देखे जा रहा था। बड़ी बडी साफ सड़के, तेज फर्राटेदार वाहन, सभी कुछ पीछे छोड़ते धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी। धीरे-धीरे गगनचुंबी ईमारतो की जगह छोटे मकान और झुग्गी-झोपड़ियों ने ले लिया था, पटरी के किनारे बने झोपड़ियों की गंदगी, संड़ाध और गरीबी को ट्रेन में से ही महसूस किया जा सकता था। ऐसा नहीं था कि यह नजारा केवल इसी शहर का था, मैनें इस यात्रा में दर्जनों बड़े शहरो के स्टेशन आने से पूर्व यही नजारा देखा। मन अपनी गति से चल रहा था, ट्रेन अपनी गति से। झुग्गियां- झोपड़ियाँ खत्म हो चुकी थी, शानदार मकानो का दौर और रेलवे यार्ड शुरू हो चुका था, मैं सामान उठाये गेट की तरफ चल दिया। शायद उन्नत भारत की यही तस्वीर थी, ऊँचे मकानों के बीच में दबी-छुपी झोपड़ियाँ और उसमें बेबस गरीबी और गंदगी। मुझे लगा कि भारत की इस हकीकत को देखने से बचने के लिए ही अखंड गहमरी जैसे राजनेता और अधिकारी जहाजो से सफर करते हैं, जहाँ से उनको हकीकत न दिखाई दे और वह उन्नत भारत के गीत बनावटी सच्चाई से गा सकें।
अखंड गहमरी, गहमर गाजीपुर।।
https://www.facebook.com/100000516458576/posts/1890666537627210/?app=fbl
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें