08 जुलाई 2019 की फेशबुक पोस्ट
आज आठ जुलाई है वनस्थली विद्यापीठ टोंक राजस्थान में सीमू दीदी को छोड़ कर हम और वाइफ होम घर पहुँच चुके हैं। सब कुछ अपनी जगह पर है, मगर फिर भी एक उदासी, खुशी यह है कि वह अपने जीवन पथ के प्रथम पायदान पर सफलता पूर्वक चढ़ गई, मगर एक खालीपन। 03 जुलाई की दुपहरिया जब सूरज आकाश के मध्य में था, उस वक्त यह टीन का बक्सा उसके दैनिक दिनचर्चा के साजो समान से भर जा रहा था, एक एक सामान पर उसका नाम लिखा जा रहा था। वह दृश्य मुझे वह आभास दे रहा था जो कहा जाता था कि बेटी का झॉंपी सजाया जा रहा है। ठीक वैसा ही माहौल था, खुशी थी, चहक थी, मिठास थी, हर तरफ शोर था, मगर इस खुशी के पीछे, इस चहक के पीछे, इस मिठास के पीछे एक गम, एक उदासी, जीवन की खटास, और शांति भी खड़ी थी। समय अपने गति से भागा जा रहा था, पकडने की चेष्ठा करना भी आसान नहीं था, और कोई पकड़ना भी नहीं चाहता था, क्योकिं वह अपने जीवन की सबसे अनमोल धरोहर को सजाने सवॉंरने उसके सपनों को साकार करने के लिए एक अंजान मगर सुरक्षित हाथो में सौपने अपनी मरजी से आया था। बेटी के विवाह के चरणों की तरह इस शिक्षा व्यवस्था के सारे चरण खुशी से पूरे कर रहा था, और उसी खुशी के बीच दबे पॉंव आ गई विदाई की घड़ी। हर तरफ चहकती बेटीयॉं नजर आ रही थी, मगर चेहरे पर एक गम साफ दिखाई दे रहा था। मॉं तो मॉं होती है और विदाई तो विदाई। स्त्रीयों के रूदन को तो सबने देखा है, वहॉं भी था, मगर पिता मोम के हृदय वाला भी पत्थर का बनते हुए अपने ऑंखो को सूखे रहने के लिए बेबस कर रहा था। ऑंखे कही उसका कहना न मानते हुए जलजल न हो जायें, घूप की परवाह किये बिना घूप ग्रहण करता रहा, दौडता रहा।
सब हकीकत जानते थे, फोन पर बात होगी, 4 महीने में अवकाश होगा, मगर जो पिता रोज कही से आने के बाद सबसे पहले चहकते हुए जिस फूल का दर्शन करता था, वह फूल वहॉं नहीं होगी। राजा हो, रंग हो, गरीब हो, अमीर हो संतान मोह से सब ग्रसित रहते थे, उसके पत्थर के ह़दय मोम से भी अधिक पीघले हैं। उसे बस सकून रहता है कि जहॉं है स्वस्थ है, सुखी है। वनस्थली जाने से पहले मैेने अनेको भ्रॉंतियॉं सुनी थी, मगर सारी की सारी गलत निकली। वैसे यह अटल सत्य है कि इस प्रवेश में मेरा कोई योगदान नहीं रहा। न फार्म भरवान में न तैयारी करने में न कागजो को तैयार कराने में, प्रवेश के लिए फार्म खुद उसने और उसकी और भाई चम्पू और उसके चचा प्रशान्त ने मिल कर भरा, और प्रक्रियाएं पूरी की। उसकी मॉं एवं उसके प्राइमरी पाठशाला के अध्यापक राजेश यादव, चन्द्रभान जी, एक अन्य लोगो के साथ उसके बाबा ने उसकी तैयारी कराई। और चयन के बाद गहमर के अधिवक्ता अशोक सिंह एवं भदौरा के पत्रकार विवेक र्ऊ र्फ विक्की ने उसके सारे कागज तैयार कराये। चाचा विकास ने जाने से पहले उसे एक सैनिक की तरह तैयार किया, उसके हौसले को पत्थर की तरह मजबूत किया। बाकी आप सब के आशीर्वाद ने अन्य चीजो को पूरा किया, मैं किसी का धन्यवाद कर उसके महत्व को छोटा करना नहीं चाहूँगा
आज 4 दिन बीत चुके हैं, जब भी फोन किया जाता है एक सवाल पापा कब आयेगें, जी करता है अभी चल दूँ, मगर कुछ सोच कर शांत रह जाता हूँ कि कम से कम जिन्दगी की यह पहली जंग लडना तो सीख जाये। अपनी पहचान तो बना जायें।
अखंड गहमरी
आज आठ जुलाई है वनस्थली विद्यापीठ टोंक राजस्थान में सीमू दीदी को छोड़ कर हम और वाइफ होम घर पहुँच चुके हैं। सब कुछ अपनी जगह पर है, मगर फिर भी एक उदासी, खुशी यह है कि वह अपने जीवन पथ के प्रथम पायदान पर सफलता पूर्वक चढ़ गई, मगर एक खालीपन। 03 जुलाई की दुपहरिया जब सूरज आकाश के मध्य में था, उस वक्त यह टीन का बक्सा उसके दैनिक दिनचर्चा के साजो समान से भर जा रहा था, एक एक सामान पर उसका नाम लिखा जा रहा था। वह दृश्य मुझे वह आभास दे रहा था जो कहा जाता था कि बेटी का झॉंपी सजाया जा रहा है। ठीक वैसा ही माहौल था, खुशी थी, चहक थी, मिठास थी, हर तरफ शोर था, मगर इस खुशी के पीछे, इस चहक के पीछे, इस मिठास के पीछे एक गम, एक उदासी, जीवन की खटास, और शांति भी खड़ी थी। समय अपने गति से भागा जा रहा था, पकडने की चेष्ठा करना भी आसान नहीं था, और कोई पकड़ना भी नहीं चाहता था, क्योकिं वह अपने जीवन की सबसे अनमोल धरोहर को सजाने सवॉंरने उसके सपनों को साकार करने के लिए एक अंजान मगर सुरक्षित हाथो में सौपने अपनी मरजी से आया था। बेटी के विवाह के चरणों की तरह इस शिक्षा व्यवस्था के सारे चरण खुशी से पूरे कर रहा था, और उसी खुशी के बीच दबे पॉंव आ गई विदाई की घड़ी। हर तरफ चहकती बेटीयॉं नजर आ रही थी, मगर चेहरे पर एक गम साफ दिखाई दे रहा था। मॉं तो मॉं होती है और विदाई तो विदाई। स्त्रीयों के रूदन को तो सबने देखा है, वहॉं भी था, मगर पिता मोम के हृदय वाला भी पत्थर का बनते हुए अपने ऑंखो को सूखे रहने के लिए बेबस कर रहा था। ऑंखे कही उसका कहना न मानते हुए जलजल न हो जायें, घूप की परवाह किये बिना घूप ग्रहण करता रहा, दौडता रहा।
सब हकीकत जानते थे, फोन पर बात होगी, 4 महीने में अवकाश होगा, मगर जो पिता रोज कही से आने के बाद सबसे पहले चहकते हुए जिस फूल का दर्शन करता था, वह फूल वहॉं नहीं होगी। राजा हो, रंग हो, गरीब हो, अमीर हो संतान मोह से सब ग्रसित रहते थे, उसके पत्थर के ह़दय मोम से भी अधिक पीघले हैं। उसे बस सकून रहता है कि जहॉं है स्वस्थ है, सुखी है। वनस्थली जाने से पहले मैेने अनेको भ्रॉंतियॉं सुनी थी, मगर सारी की सारी गलत निकली। वैसे यह अटल सत्य है कि इस प्रवेश में मेरा कोई योगदान नहीं रहा। न फार्म भरवान में न तैयारी करने में न कागजो को तैयार कराने में, प्रवेश के लिए फार्म खुद उसने और उसकी और भाई चम्पू और उसके चचा प्रशान्त ने मिल कर भरा, और प्रक्रियाएं पूरी की। उसकी मॉं एवं उसके प्राइमरी पाठशाला के अध्यापक राजेश यादव, चन्द्रभान जी, एक अन्य लोगो के साथ उसके बाबा ने उसकी तैयारी कराई। और चयन के बाद गहमर के अधिवक्ता अशोक सिंह एवं भदौरा के पत्रकार विवेक र्ऊ र्फ विक्की ने उसके सारे कागज तैयार कराये। चाचा विकास ने जाने से पहले उसे एक सैनिक की तरह तैयार किया, उसके हौसले को पत्थर की तरह मजबूत किया। बाकी आप सब के आशीर्वाद ने अन्य चीजो को पूरा किया, मैं किसी का धन्यवाद कर उसके महत्व को छोटा करना नहीं चाहूँगा
आज 4 दिन बीत चुके हैं, जब भी फोन किया जाता है एक सवाल पापा कब आयेगें, जी करता है अभी चल दूँ, मगर कुछ सोच कर शांत रह जाता हूँ कि कम से कम जिन्दगी की यह पहली जंग लडना तो सीख जाये। अपनी पहचान तो बना जायें।
अखंड गहमरी
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