रविवार, 15 अक्टूबर 2017

शिक्षामित्र

फरत भी जिससे नफरत करती थी, वो मैं था। तड़प, दर्द और तबाही मेरी जिन्दगी का वो हिस्सा थे, जिससे मैं भाग ही नहीं पाता। चेहरे पर मुस्कान लिये मैं दर्द को पीने की कला बहुत पहले ही सीख लिया था। सपने और शौक का तो बहुत ही पहले तर्पण कर चुका था। बस जिन्दगी की गाड़ी को एक निश्चित गति देकर, छोड़ दिया था। न मंजिल का पता था, न रास्ते का पता। मैं एक गुजरा हुआ कल बनने की राह पर था। सहारा था तो बस लेखनी का, कभी हसाँ देती, कभी रूला देती, कभी दर्द तो कभी दवा बन जाती। कभी वो भी मुझे जलाने पर उतर आती।कभी किसी की सूरत बना देती तो, कभी प्यार की बातें लिख बैठती।
लेखनी की इन लिखी बातों का हकीकत के धरातल पर कोई प्रभाव भी नही पड़ता। न मुझे कोई प्यार के काबिल ही समझता और न मुझे कोई किसी काम के काबिल ही समझता।
आज महीनो हो गये सड़क पर लाचार पड़ेे हुए। कितनी मिन्नते किया मैनें अपने हक के लिए, मगर कोई सुन ले ऐसा संभंव दिखाई ही नहीं पड़ता।
आखिर कसूर क्या था मेरा? यही कि मैनें अपने जिन्दगी के 17 वर्ष के हर सुनहरे पल परायों को अपना बनाने में लगा दिये, उनको निखारने में अपने सपने खत्म कर दिया, मगर परवाह किसको है। सब की तो बस अपनी डफली अपना राग है। मेरी ममता, मेरे सम्पर्ण का सिला यही मिला कि मुझे अपनी ही दुनिया से दूध की मक्खी की तरह बाहर कर दिया गया। मुझे उस कसूर की सजा दी गई जो मैनें कभी किया ही नहीं। मुझे तो बस मोहरा बनाया सभी ने अपनी राजनीतिक चालों का। न्याय के मंदिरो के दरवाजे जरूर खुले मगर वहाँ भी शिकार अकेला मैं बना। मुझे इस हाल में लाने वाले आज भी वातानुकूलित कमरों में बैठ कर चैन की रोटी खा रहे हैं।
कहा जाता है कि सरकारे पिता तुल्य होती हैं। मैनें तो पुत्र धर्म का पालन किया, जो आदेश मिला उसे अपने सुख:,दु:ख, की परवाह न करते हुए पालन किया।
ज्येष्ठ की गर्मी हो या सावन की बरसात, पूस की कड़कड़ाती ठंड हो या कुहासो में डूबी दुनिया। मैनें नौनिहालों को अपने दामन में छुपाया, उन्हें गोद में बैठा कर माँ-बाप के फर्ज को निभाते हुए निवाले खिलाये। आज मुझे उन्हीं प्यार से खिलाये गये निवालो का ईनाम , मेरे अपने निवाले छीन कर दिया जा रहा है। दुनिया के बुढ़ापे की लाठी को मैनें अपने कर्तव्यों की चाक पे चढ़ा पर इस कदर मजबूत बनाया कि वह अपने जीवन में कर्तव्य पथ से कभी अडिग नहीं हो पायेगें। मैनें भारतीय संविधान द्वारा सौपें गये हर दायित्वों का पूरी निष्ठा और लगन से अंक्षरास पालन किया, कभी अयोग्यता का कलंक माथे पर नहीं लगा, परन्तु आज जब मैं सम्मान के साथ जीने और अपने वर्षो की मेहनत का फल प्राप्त करने लगा तो मेरी सारी योग्यता को अर्थ की चाक पर चढ़ा कर उसे अयोग्ता बना दिया गया।
मेरे माथे को कलंक के टीके से सुशोभित करते हुए, सड़क पर तिल-तिल मरने को छोड़ दिया गया। वाह रे मेरी किस्मत, अपने प्यार का बलिदान, अपने सुहाने पल को मसलने का ये सिला, मेरे नाम को भी बदल कर वही जमाना जो कभी मित्र कह कर बुलाता था, आज शिक्षाशत्रू कह कर बुला रहा है। शायद इसी को कहते है..

वफा की राह पर चल कर, लुटाया प्यार जो मैने।
सिला उसका मिला मुझको, सड़क पर मौत माँगू मैं ।।।

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