प्रिय मित्र,
राम राम
बहुत दिनो से तुम्हारी याद आ रही थी। आधुनिक युग में भी तुम बहुत पीछे हो। तुमसे बाते कहने के लिए आज भी कबूतरो का ही सहारा है। कई दिनो से सोच रहा था कि अपनी बाते तुमको कहँ। मगर सोचता ही रह । तुम्हारी जिन्दगी की गाड़ी उम्मीद है कि ठीक चल रही होगी।
पहले के तरह आज भी मैं व्यथित मन की व्यथा तुमसे कह रहा हूँ।
मित्र जब पहली बार मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे साथ अच्छा मज़ाक हो रहा है। कौन कर रहा है ? ये तो नहीं जान सका लेकिन यह सौ प्रतिशत सही था।
वैसे कोई फर्क नहीं पड़ता, मज़ाक किस्मत करे, अपने करे या गैर। मुझे तो अब इल्जामों का भी फर्क नहीं पड़ता। दिल भी टूटा तो, बेवफाई का दाग मुझ पर ही आया, दोस्ती भी हुई तो नाम मिला उधार की दोस्ती।
मैं तो कहीं रहा ही नहीं, सिवा तड़प के, दर्द के।
मेरी आँखो से नींद चुराने वाले भी आराम से सोते है, और मुझे सपने दिखाने वाले भी।
कितने उदाहरण दूँ जब इस नश्वर दुनिया और मेरी जिन्दगी से जाने वाले मुझे ही रूसवा और बदनामी का दाग दे कर गये। किसी के जीवन समाप्त करने के इल्जाम में काल कोठरी का दर्शन भले नहीं हुआ, मगर जीवन जरूर काल कोठरी सा हो गया, तन्हा अकेला।
दर बदर की ठोकरें खाता रहा, कल्पनाओं को हकीकत में बदलने की कोशिश करता रहा। बनाता रहा नित्य नई-नई योजनाएं, मिलते रहे साथ चलने के वादे, मगर बारिस की उन बूँदे की तरह जो धरती पर अकेल गिर अपना वजूद खो देती है, मैं भी अपना वजूद एकल में खोता रहा।
अब तो शायद चाँद सूरज से मिलन के बाद ही कुछ संभव है.. ऐसा अकसर देखा है अंतिम साँस तक करीब न आने वाले, नश्वर शरीर के छूटते ही बहुत पास आ जाते हैं।
अब शायद मेरे भी जाने का समय पास आ गया हैं, संसार से जो कमाया जो गवाँया उसे सब इस संसार को सौप दिया, फर्क भी क्या पड़ता हो सौपूगाँ या न सौपूगाँ, जिसे जो लेना होगा लेगा ही। फर्ज, जिम्मेदारी, मोह-माया, चाहता के बंधन से तो कभी दूर नहीं हो सकता,मगर टूट चुकी है मेरी सहनशीलता, टूट चुके हैं सपने, खो चुका हूँ आत्मबल. न रास्ते, न साथी, न मंजिल, न सहारा, अब मुझे जाना होगा यहाँ से, जाना ही होगा मित्र, जाना ही होगा....जाना....ही होगा।
लेटे लेटे बहुत जोरो की आव़ाज मेरे कानो में गूजँने लगी. मैं घबरा गया और एक झटके से उठा, मेरा पूरा बदन पसीने से भींग चुका था। शायद मैं कोई स्वपन देख रहा था. एक डरावना स्वपन। ट्रेन के बोगी की एसी भी मेरे काम नहीं आई थी, आस पास बैठे मुसाफिर मेरे तरफ देख रहे थे..मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि क्या हुआ और क्या देखा..मैं अपनी बर्थ से उतर कर चलना चाहा मगर पैरो ने साथ नहीं दिया और मैं लड़खड़ा कर गिरने लगा मगर वहाँ बैठे विशिष्ठ और अति विशिष्ठ लोगे ने न मुझे पकड़ने की चेष्ठा की और न उठाने की। मैं फर्श पर पड़ा -पड़ा कभी खुद को देखता और कभी उस डरावने स्वपन को सोचता, जिसमें मुझे हकीकत की छाया नज़र आ रही थी।।।
अखंड गहमरी।।
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