रविवार, 15 अक्टूबर 2017

हम 1.72 लाख

आज मैं अखंड गहमरी जो लिखने जा रहा हूँ, निश्चित है कि आप उसमें स्वार्थ की गंध महसूस करेगें।आप बिल्कुल सही हैं, जो गंध आप महसूस कर रहे हैं न इस आलेख में है, क्योंकि आज मैं आप अपनी पत्नी के साथ कंन्धे से कन्धा मिला कर न सिर्फ खड़ा हूँ बल्कि उसके साथ चल भी रहा हूँ।
आज के समय में मैं न घर का हूँ और न घाट क क्योंकि मैं एक सहायक अध्यापक/ ''शिक्षामित्र'' हूँ। आज न मैं सहायक अध्यापक ही हूँ क्योकि न्यालय का आदेश है और न शिक्षामित्र क्योकि सहायक बनने से पहले मैं निमागत तरीके से शिक्षामित्र से त्याग पत्र दे चुका हूँ।
मैं अखंड गहमरी व्यवस्था का एक ऐसा अंग जिसको न सिर्फ आम आदमी ने ही नहीं बल्कि अपनो ने भी ''शिक्षाशत्रु '' शिक्षा दुश्मन'' और भी न जाने किस-किस नाम से संबोधित किया बल्कि शासन- प्रशासन के साथ साथ मेरे अपनो ने जम कर राजनीति की। मैं तो (अखंड गहमरी) अब और लूटा जब हमारे अपनो लोगो ने 12 सितम्बर 2015 की शाम 5 बज कर 30 मिनट के बाद अपने अपने ढ़ग से कई समूह बना कर मुझे 5 वर्षीय बालक समझ कर लालीपाप खिलाते रहे। लालीपाप भी खिलाया तो वो करोडो का। नतीजा क्या निकला ''शुन्य''।
मैं आज वहाँ भी नहीं हूँ जहाँ 2001 में अकेला था। उस समय अकेला था। उम्र भी 21 , 1850₹ में गुजर -बसर हो रहा था। उम्र बढ़ी, जरूरते बढ़ी तो सरकार रूपी पालक से माँगना और माँगना शुरू किया। पालनहार-पिता एक समान। मेरी जिद पर, मेरे माँग पर उन्होनें डाट-डपट कर, धमका कर, प्यार से अखंड गहमरी को समझाने की कोशिश नहीं किया और अपने स्वार्थ की बेदी बकरा बलिदान करने के लिए प्यार करने लगे। 1850₹ से 3500 ₹ मानदेय ले आई। भरोसा, वादा और न जाने क्या दिया, सपने दिखाये सम्मान जनक जिन्दगी का।
मेरी माँग तो माँग थी, वो पिता और मैं बच्चा। बूआ मायावती से लेकर अखिलेश चाचा ने खूब खेला। अखिलेश चचा तो हसरत भी पूरी कर दिये, मगर सियासत के रंग में रंगा, अधकचरे ज्ञान से आधा अधूरा संसोधन। आनन- फानन में खुद योग्यता बनाई, खुद हमें अध्यापक। हम भी खुश वो भी खुश।
तभी एक भूत B.ed के रूप में प्रकट हुआ। अपने घर में उजाला करने से अच्छा उनको दूसरे के घर को अँधेरा करना अधिक प्यारा लगा। सरकार से अपने हक की लडाई न लड़ पाने वाले यह मर्दागनी दिखाते हुए हमारे घर को भी अँधेरा कराने चल दिये।
सफल हुए वो हम फिर उसी जगह पर, हम मरने लगे, इन्होंने मिठाईयाँ बाटी, धी के दिये जलाते। अपनी असफलता, अपनी नामर्दी की खुशी हमारे लाश पर बनाई। भगवान इनका भी भला ही किया और करेगा।
अब बारी थी हमारे अपनो की, आव दिखा न ताँव , हम में से ही निकल कर दर्जनो संगठन बन कर हमारे दु:ख का निदान कराने के आगये।
किसी संगठन ने तूरम खाँ को बुलाया तो किसी ने दारा सिंह को तो किसी ने किंगकांग को करोड़ो देकर बुलाया। हम को जिन्दगी का भरोसा दिलाया गया। हम 1.72 लाख से 500-500 कर मेरे अपनो ने सहयोग लिया। मरता क्या न करता, हातिमताई के जिन्न की तरह जब आवाज़ आती आज भेजो नही तो सब खत्म। तुरन्त बटूआ ढीला।। हम भरे की वो भरे क्या जाने।
अखंड गहमरी के दु:ख का निदान करने वाले आपस में लडते रहे और विरोधी हमसे। प्रकृति के कई इसारो के बाद भी वो एक होने को तैयार नहीं थे, विरोधी बिखरने को तैयार नहीं।
अन्त में हमारे अपने सु:ख दु:ख के साथी नेता और विरोधी जीत गये और मैं शिक्षामित्र हार गया। न्यायालय पर तो कुछ कहना नहीं मुझे मगर समय आपको बता देगा।
अब हम यही सोच कर खुश हैं कि
(1) हमें माँगने की सजा मिली।
(2) हम राजा/ पिता के अधकरी संवेदना के निर्णय का फल मिला।
(3) 1-1 साल कोचिंन और तैयारीयां करने वाले , अनवत शिक्षा जारी रक्खे जिस में कई बार में सफल नहीं हुए हम तो 17 साल से कक्षा 5 के ऊपर सोच नहीं पाये, उसे दो प्रयासो में सफल करना है।
तो चले हम अब भीख माँग कर या 400रूपये रोज की मजदूरी करके परिवार का पेट भरे और अपने पुत्र के साथ किसी जगह पढाई करने.ताकी पास हों।
क्योकि हमारे सुख दुख के साथी मुकदमें बाजो को पैसा भी तो देना हैं और पापी पेट को पालना हैं, बेटी भी इन सालो में हाथ पीले करने लायक हुई तो हम हुए
'' शिक्षक से भिखारी'' जी हाँ सही कहा आपने ""शिक्षाशत्रू से भिखारी।
''पत्थर बाजो के दर्द को समझने वाला, आतंवादियों के साथ अन्याय न करने वाला, हर ऐनकाउंटर पर जाँच कराने वाले सर्वोच्च नयायालय तेरी जय हो।
अखंड गहमरी , गहमर गाजीपुर, उ0प्र0।।
जय हो

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