आज या कभी कोई किसी को एक कप चाय बिना स्वार्थ के नहीं पिलाता, एक पान नहीं खिलाता, एक रूपया भीख किसी को नहीं देता, ऐसे हाल में क्यों और कुछ लोग बिना किसी पद के बिना किसी सरकारी आर्थिक श्रोत के कैसे ग्राम सभाओं में भारी भरकम काम कैसे कराया जा रहा है? इसका धन कहाँ से आ रहा है? मेरी समझ में नहीं आता।
मैं अपनी बात लिखने से पहले कुछ बाते आपको बताना चाहूँगा। मैं गहमर परिक्षेत्र छोटे स्तर पर बाल व महिला विकास के लिए तरह तरह का आयोजन ''गहमर वेलफेयर सोसाइटी'' के तहत करता था। लालच था कि जब इस क्षेत्र में सरकार NGO की कार्यप्रणाली देखेगी तो उसका फायदा हमें होगा। हमें आर्थिक लाभ भी मिलेगा, हमारे दिये प्रमाण-पत्र महत्व रखेगें, हमारे क्षेत्र के बच्चे भी आगे जायेगें। वर्ष 2015 में जब मेरी पत्रिका साहित्य सरोज आई तो गोपालराम गहमरी कार्यक्रम शुरू हुआ। यहाँ भी लालच कि पत्रिका आगे जायेगी तो अर्थ मिलेगा, गोपालराम गहमरी का नाम जो सरकार से दूर है वह सरकार के निगाह में आयेगा। नये व गुमनाम साहित्यकार आगे आयेगें। साथ ही बाहर के साहित्यकार आयेगें तो हमारे बच्चे कुछ सीखेगें। हमारे गाँव के बच्चे आगे जाकर फर्क के साथ कह सकेगें कि ''हम गाँव में रह कर भी शहर के बराबर है''। इस काम में हम आपका सहयोग लेते हैं।
आज या कभी कोई किसी को एक कप चाय बिना स्वार्थ के नहीं पिलाता, एक पान नहीं खिलाता, एक रूपया भीख किसी को नहीं देता, ऐसे हाल में क्यों और कुछ लोग बिना किसी पद के बिना किसी सरकारी आर्थिक श्रोत के कैसे ग्राम सभाओं में भारी भरकम काम कैसे कराया जा रहा है? इसका धन कहाँ से आ रहा है? मेरी समझ में नहीं आता।
भारत के सबसे अमीर व्यक्ति भी पानी में पैसे नहीं फेंकता, वह भी तब तक किसी काम में पैसे नहीं लगाता जब तक वहाँ से कोई फायदा नहीं होता। मैं गाँव में अन्तर्राष्ट्रीय कार्यक्रम के लिए चंदा माँगता हूँ , नहीं मिलता है, क्योंकि उससे किसी को कोई रिर्टनिंग नहीं।ऐसे में आम आदमी जब अपनी गाढ़ी कमाई के हजारो रूपये जनसेवा के नाम पर बहा कर केवल सोशलमीडिया पर फोटो डाले या डलवायें तो संदेह होना लाजिमी है।
क्या इन जनसेवक को इतनी आमदनी है जो परिवार सेवा के बाद भी इतने पैसे बच जाते हैं जो जनसेवा के नाम पर हजारो रूपये खर्च कर सकें? क्या इनकी इस काल में भी इतनी कमाई है जो यह इनकम टैक्स बचाने के लिये जनसेवा में पैसे बहा रहे हैं? या इन जनसेवको को राजनैतिक पार्टीयाँ, भारत की A, B,C. या ,D कम्पनीयाँ चुनावी प्रत्याशी के नाम पर फाईनेंस कर रही है और चुनाव जीतने के बाद 50:50 के अनुपात में हमारे आपके विकास हेतु आये पैसे का बंदरबाट करेगी? आज ऐसे लोगो की कमी नहीं है जो गाँवो में विभिन्न तरीकों से यह काम करा रहे हैं। वह पैसा खर्च करके निर्माण कार्य करा रहे हैं मगर वह इस प्रकार के विकास कार्यो के लिए नियुक्त प्रधानों का काम न कराने का मुखर विरोध नहीं कर रहे हैं। वह काम न होनें पर जनसमूह को विश्वास में लेकर प्रधानों अधिकारियों पर न दबाब डाल रहे हैं और न उनके खिलाफ धरना-प्रदर्शन। इसका कारण भी साफ है। उनके ऐसा करने से उनको भी अपनी पोल खुलने का खतरा है। उन्हें डर रहता है कि वह विरोध करेगें तो उनका भी कच्चा चिट्ठा खुलेगा। ऐसे में अपने तथाकथित पैसे विकास करा कर जनता के सामने हीरो व समाज सेवी बनना एवं अपनी विकासपुरूष के रूप में छवि दिखाते हैं। जिससे साँप भी मर जाता है और लाठी भी नहीं टूटती और यदि चुनाव जीत गये तो आपके विकास के पैसों से राजनैतिक और A,B,C,D कम्पनी की कर्ज वापसी और अपनी तिजोरी।
यहाँ एक और गणित समझाना आपको और जरूर है, आप अपने घर के पास एक छोटी सी नाली साफ कराते हैं तो दो मजदूर दिन भर लग जाते हैं हजार रूपये का खर्च आता है।अपने घर की सफाई कराये, छोटे छोटे निर्माण कराये तो दसो हजार रूपये खर्च हो जाते हैं, एक टैक्टर मिट्टी गिराये तो 2000 खर्च हो जाते हैं। सिमेंट के काम का तो पूछीये ही मत। हम अपने घर के कामों को कराने के लिए महीनों सोचते हैं, ऐसे में यह समाजसेवी तुरंत और महीने में कई काम ऐसे कराते हैं, धन कहाँ से आता है? लाखों के सामान बाँट दिये जाते हैं बिना सरकारी सहायता के, धन कहाँ से आता है? आपको सोचना होगा।
चुनाव आते ही वोटो के सौदागरों को प्रतिदिन मुर्गा बोलत प्रतिदिन परोसा जा रहा है, यदि हम गणित के हिसाब से देखे तो महज 1 किलो मटन 400 से 500 रूपये किलो है, और एक सामान्य जाम की बोतल 600/- रूपये, तेल ,मसाला जलावन, आटा, चावल , पत्तल, गिलास इत्यादि का खर्च हम 500/- रूपया भी रखें तो कुल खर्च लगभग 1600 रूपये चार व्यक्ति का आता है यानि 400 रूपया प्रतिव्यक्ति। अब वह 400 रूपये खर्च करने वाले हम अकेले तो नहीं? फिर यह 400 रूपये का रिर्टन कैसे?क्या आप केवल पुरूष वर्ग की सेवा कर महिला वर्ग का मत ऐसे समय में लेगें जब महिला भी समाज में निकल कर अपनी पहचान बना रही हैं।
आप को एक हकीकत सुनाता हूँ।
गत जिला पंचायत चुनाव में मैनें एक दिन अपनी पत्नी ममता सिंह से कहा कि भाजपा से मनीष सिंह बीटू उम्मीदवार है युवा हैं, कर्मठ है उनको वोट दिया जाये , रोज मिलेगें, काम आयेगें। मेरी पत्नी ने तत्काल कहा मेरे स्कूल में लक्की मास्टर के भाई झुन्नु सिंह भी जिला पंचायत के उम्मीदवार हैं वह भी युवा हैं, कर्मठ है, रोज मिलेगें। चलीये उनको सपोर्ट किया जाये। मैं चुप हो गया। जब मैं अपनी पत्नी का वोट नहीं फिक्स कर पाया तो मैं कैसे कहूँ कि मैं दूसरे का मत किसी को दिला दूगाँ।
आये दिन सोशलमीडिया पर लम्बे लम्बे निर्माण कार्य के फोटो, लम्बी चौड़ी पार्टीयाँ यह एक उसी प्रकार का व्यापार है जिस प्रकार 1 रूपये का चिप्स आप के पास दस रूपये का पहुँचता है। 10 रूपये के चिप्स के पैकेट में 1 रूपये के मुल्य के बराबर चिप्स आपको मिलता है शेष आपके जेब का 9 रूपये प्रजेंटेशन के रूप में विज्ञापन, पैंकिंग और डिस्ट्रीब्यूटर से लेकर दुकानदार के फायदे के रूप में जाता है। पैसा आपका नाम कम्पनी का। उसी तरह आपके टैक्स का विकास के रूप में आया पैसा आपको एक रूपया मिलता है शेष तथाकथित समाजसेवी और अधिकारियों को , आप का नाम भी नहीं होता कोई आपसै सीधे मुँह बात भी नहीं करता।
अब भी वक्त है, संभल जाये, अपना पैसा अपने विकास में पूरी तरह लगवायें। ए.बी.सी.डी.कम्पनीयों, तथाकथित चुनावी समाजसेवीयों और एक टाइम भोजन कराने वालो को किनारा करें।
एक स्वच्छ और स्वस्थ ग्राम पंचायत की स्थापना करें।
अखंड गहमरी।
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