शनिवार, 22 जुलाई 2017

तो बजाओ ताली मेरे नाम पर।

आज बैठे बिठाये लतीफों की तरफ ध्यान चला गया। लतीफा,जोक,चुटकुला और न जाने कितने और नाम होगें और इसकी परिभाषा क्या होगी यह तो कोई साहित्यकार या अध्यापक ही बता सकता है, मगर मैं इतना जरूर बता सकता हूँ कि आज जो इसका रूप मेरे समाज में उभर कर आया है ये मेरा किया-धरा है।
मैने लतीफों को केवल एक उद्वेश्‍य पूर्ति का साधन बना कर रख दिया है। सॉंप भी मर जाये लाठी भी न टूटे। अब मैं लतीफे कभी हसाँने के नहीं लिखता, गुददुदाने के लिए नहीं लिखता, मैं तो लतीफो के शक्‍ल में प्रहार करता हूँ हिन्‍दू धर्म पर, सम्‍मानित रिश्‍तों पर, भारत की सभ्‍यता संस्‍कृत पर, पति-प‍त्‍नी, गुरू- श्‍ािष्‍य के रिश्‍तो पर। करूँ भी तो क्‍यों नहीं करूँ, लोग ताली बजाते है, एक दूसरे को भेजते हैं, भले नाम मेरा नहीं आता मगर मेरे विचार तो सब तक पहुँच जाते ही है, तो मैं सफल हो जाता हूँ अपने मकसद में। किसी को बुरा भी नहीं लगता और मेरी बात भारत ही नहीं वरण पूरे विश्‍व में फैल गई।
हाँ लतीफे मैं मंचो से भी पढ़ता हूँ, कविता के नाम पर परोसता हूँ। परोसें भी क्यों नही? जब उद्देश्य पूर्ति के लिए लिखी गई दो कौड़ी के लतीफे जब मंच पर ताली, माला और दाम दिलातें हैं तो मैं लाखो की कविता क्यो बर्बाद करूँ? मैं पागल थोडे हूँ कि जिससे आयोजक, संयोजक, साक्षात देवता स्वरूप श्रोता खुश हो रहे हो उसे बंद कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारूँ।
ऐसा नहीं है कि सभी को मेरी यह करतूत अच्छी लगती है, कुछ लोग है जिनको नागवार लगती है, मगर बेचारे करे तो क्या? किसका गला पकड़े? भेजने वाले का तो पता है मगर लिखने वाले का तो पता नही? पता चल भी गया तो जब मेरे गले में फूलो का हार हैं तो वह चाह कर भी जूतो का हार मेरे गले म़े नहीं डाल सकते। थक- हार कर विरोध लिखेगें, तो लिखो न भाई विरोध किसने मना किया है। मेरे जैसे लिखने और सोचने वाले तो लाखो हैं और तुम मुट्ठी भर लोग क्या कर लोगे, कितने साथ देगे़ं तुम्हारा? अब ये मत कोई समझे कि हाथी को चीटी सूढ़ में घुस कर मार सकती है। न अब वो चीटी है न अब वो हाथी। लाज-शर्म और संस्कारो की दुहाई देकर भी तुम मुझको मना नही सकते क्योकि मैं लाज-शर्म, संस्कार सब शर्बत बना कर पी चुका हूँ। रिश्तों की अहमियत, मान-मर्यादा सब चुल्हे में भस्म कर चुका हूँ। जानते हैं क्यों?
क्योकि मेरा उद्देश्य ही है, सस्ती लोकप्रियता, हिन्दू धर्म को नीचा दिखा कर महान सेकुलर बनना। मेरा उद्देश्य है गुरु-शिष्य, पति-पत्नी के संबंधो और मर्यादा को तार-तार करना।
तो बताओ क्या होगा मेरा..कुछ नही न...तो बजाओ ताली मेरे नाम पर। महान लतीफेबाज अखंड गहमरी के नाम पर।।
जय अखंड गहमरी, जय लतीफा।
अखंड गहमरी।।

शनिवार, 15 जुलाई 2017

गॉंव की माटी को कोसती दो महिलाएं

पूरे बुद्धिजीवी समाज से आज यह अखंड गहमरी एक सवाल का जबाब चहता है एक सच्ची घटना के आधार पर आशा है गुरूजन भी अपनी बात जरूर लिखेगें।
मैं 9 जुलाई 2017 यानी रविवार को बनारस से गरीब रथ एक्सप्रेक्स से दिल्ली आ रहा था। गरीब रथ को उसके डिपार्चर टाइम 7:30 पर प्लेटफार्म पर लाया गया..और ट्रेन बिलावजह 45 मिनट देर से खुली, अफरा तफरी मची सो अलग।
मैं भी ट्रेन में सवार हुआ, खाना बारिस के वजह से ले नहीं पाया था सो आराम से नमकीन और ठंडा पीने लगा.. तभी बर्थ नम्बर तीन पर बैठी एक भद्र महिला के 5 साल के बच्चे ने कुछ शरारत शुरू किया। महिला ने उसे समझाया और बहलाया जब वह नहीं माना तो महिला ने उसे एक झापड़ रसीद करते हुए कहा कि'' गाँव से आ रहे हो न , पूरी तरह बदमाश हो गये , दिल्ली पहँचने की देर है , पहले की तरह एक दम सीधे हो जाओगें ''। यह कह कर वह महिला फर्क से अन्य सह यात्रीयों को देखने लगी। लोगो ने उसकी हाँ में हाँ मिलाया। शायद एक मैं ही था, जिसके कानो में उस महिला कहे शब्द पिघले शीशे के सामान उतर रहे। मैं आवाक था।
तभी टीटी महोदय ने कि मेरे निवेदन पर मेरी सीट बदल दी.क्योकि उपर की सीट पर जाने में परेशानी हो रही थी।
मैं अभी लेटा ही था कि दिन भर के कार्यो का लेखा जोखा जानने के लिए रोज की भाँति कान्ति माँ का मैसेज आ गया, मैं बात करते करते सो गया। सुबह 9 बजे नींद खुली तो हापुड़ के आस पास ट्रेन थी, जो मेकप कर राईट टाइम हो गई थी। 10:30 दिल्ली पहुँचती, मैं बैठ गया, सामने देखा दो बच्चे जो भाई बहन थे बैठे खेल भी रहे थे, शरारत भी कर रहे थे और बीच -बीच अपनी माँ से और बिस्कुट देने की जिद कर रहे थे। दोनो बच्चो की उम्र 3 से 5 साल के बीच रही होगी।
उसकी माँ उन्हे बार बार समझा रही थी, वह नहीं माने तो उसने अपनी लड़की को अपने से दूर ढकेलते हुए कहा " 20 दिन गाँव में छुट्टियाँ मनाने क्या रह लिया एकदम बिगड़ गई हो, आज ही घर (दिल्ली) पहुँचते सब अक्ल ठिकाने आ जायेगी"। बच्ची को रोता छोड़ दिया।
आप यकीन करे महज 12 घंटे में 2 शहरी महिलाओं द्वार गाँव में रहने पर तंज कसना , मुझे सोचने पर विवश कर गया, मैं सोचने लगा कि आज गाँव की माटी को माटी के लोग ही बदनाम करने में फर्क महसूस कर रहे हैं।
अपनी कमीयों का ठीकरा गाँव पर फोड़ रहे है। दादा-दादी के स्नेह को बच्चे को बिगाड़ने का काम कह कर कोश रहे हैं। मैं यह सोचने लगा कि तब आज के शहरी माता- पिता अपने बच्चो को कैसी अच्छी परवरिश और संस्कार दे पा रहे हैं जो बच्चे 20 दिन अपनो के साथ रहने पर भी केवल गाँव जा कर भूल जा रहे हैं? अगर ऐसा है तो वह माँ- बाप किस आधार पर सोचते हैं कि बच्चा बड़ा हो कर समाज में आयेग तो वह संस्कारी बन कर रहेगा।
आज तथाकथित हाई सोसाइटी किस हक से गाँव की उस माटी को बदनाम करते हुए, अपने बच्चो में गाँवो के प्रति हीनता और नफरत का भाव भर रही है? जिसकी वह खुद पैदाईश है।
अखंड गहमरी, गहमर गाजीपुर।।

हिन्‍दू पर हमले में नहीं निकलती आव़ाज

मेरे घर मतलब जहॉं मैं रहता हूँ, वहॉं टी0वी0 भी नहीं है, और न तो मैं कोई समाचार पत्र ही खरीदता हूँ। मानता हूँ कि टी0वी न रहना तो कमी नहीं हैं मगर समाचार पत्र न खरीदा कमी है। ये बातें बताने का कारण मैं नीचे बताऊगॉं।
हॉं तो जहॉं तक मैं देख पा रहा हूँ उत्‍तर प्रदेश विधान सभा में विगत 12 जुलाई को विस्‍फोटक पदार्थ पाया गया। उस कांन्‍ड के बाद जितना हल्‍ला मचा है वह जायज है। भारत के लोकतन्‍त्र पर माननीय अटल बिहारी बाजपेई जी के शासन में केन्‍द्र पर हमले के बाद, अब केन्‍द्र में मोदी और प्रदेश में योगी के शासन काल में एक नाजायज करतूत हुई है। पूरा प्रशासनिक तन्‍त्र, सरकार और नेता परेशान हैं कि ये कैसे आया और ये कैसे हुए, अगर किसी की जान चली जाती तो क्‍या होता ? लोकतन्‍त्र पर हमला हो गया होता तो क्‍या होता ? किसी नेता की जान चली गई होती तो क्‍या होता ? न जाने कितनी जॉंच कमेटीयों का गठन और न जाने कितने निर्णय लिये गये। आखिर लिये भी क्‍यों न जाये ? जनता के चुने प्रतिनिधियों की सुरक्षा का सवाल है। हॉंड-मॉंस के बने जीव का सवाल है। दुबारा न मिलने वाले जीवन का सवाल है।
यह सब देख कर मेरे मन में एक सवाल आया कि क्‍या इस घटना से महज कुछ दिन पहले अमरनाथ यात्रीयों के ऊपर हुए हमले के बाद इन राजनेताओं ने ऐसी हाय-तौबा मचाई, जो अपने ऊपर हमले की कल्‍पना मात्र से मचा रहे हैं ? क्‍या इस प्रकार उनकी सुरक्षा के लिए तबा-तोड़ निर्णय लिये गये? क्‍या इस प्रकार पूरे नेताओं ने बयान-बाजी किया? शायद ऊपर कहे बातो का यही जबाब है कि टी0वी0 और समाचार पत्रो का मेरे पास नहीं रहने के बाद भी, यह महसूस किया कि अमरनाथ यात्रीयों पर हमले के बाद न राजनैतिक बिरादरी में कोई हल्‍ला नहीं मचा और न तो मशीनरीयॉं उस तेजी से हरकत में आई। इसका कारण भी साफ है कि मरने वाले न ऊँचे धराने के थे, न नेता थे, और ना ही मुसलमान, आम आदमीयों की जाने कौड़ीयों से भी सस्‍ती होती है,उनके जाने से उनकी बीबी विधवा नहीं होती, उनके बच्‍च्‍ो अनाथ नहीं होते और न तो किसी मॉं कि गोद ही उखड़ती है। ये सब चीजे तो केवल राजनेताओं के जाने से होती है। मैं यह नहीं कहता कि विधान सभा और ससंद पर हमला होने चाहिए अथवा नेताओं को मारा जाना चाहिए, मगर इतना तो जरूर कहूँगा कि जिस प्रकार विधान सभा लोकतंन्‍त्र का मंदिर था उस पर हमला होना लोकतन्‍त्र पर हमला होना है और उस पर हाय-तौबा होनी चाहिए उसी प्रकार अमरनाथ यात्रा या अन्‍य यात्रा हिन्‍दू  धर्म का मंदिर है, उस पर हमला हिन्‍दू धर्म पर हमला है। उसमें मरने वाले भी मानव थे, उनके परिवार पर भी उसका वही असर होता है जो इन नेताओं के परिवार पर होता है, मगर ऐसा भारत में नहीं होता, अगर एक नेता को खरोंच भी आ जाये तो पूरी मशीनरी हरकत में आ जाती है, जनता चिल्‍लाने लगती है मगर यदि आम आदमी की जान भी चली जाये तो न मशीनरी हरकत में आती है और न ये नेता चिल्‍लाते है, ये अगल बात है कि यदि मरने वाला मुसलमान होता है तो वह सारा कुछ हो जाता है जो एक नेता के खरोंच आने की कल्‍पना मात्र से होता है, जिसका जीता जागता प्रमाण उत्‍तर प्रदेश में ही मिल चुका है एक अखलाक नामक महापुरूष के मारे जाने के बाद इस प्रदेश में ही नहीं इस देश में कैसा बंवडर मचा था, कितनी और क्‍या क्‍या बाते हुई? किसी से छुपा नहीं है।
जय हिन्‍दूराष्‍ट्र भारत। अखंड गहमरी, गहमर गाजीपुर