कल यानि कार्तिक माह की अमावस्या को दीपावली का त्यौहार सकुशल बीत गया। पूरे भारत में हर जगह रौशनी, सफाई, सजावट की घूमधाम रही। घर हो, दुकान हो, कम्पनी हो या मंदिर दुल्हन की तरह सजाये गये, जिसकी जितनी क्षमता उसने वैसी सफाई -सजावट किया। लेकिन क्या आपको मालूम है कि इस दीप पर्व के अवसर पर भी एक मंदिर ऐसा रहा जो सुनसान,बिना किसी सजावट के, बिना किसी दीपक के रहा, अगर नहीं मालूम है तो जान लीजिए कि वह स्थान था सिकरवार वंश की कुल देवी, करोड़ो लोगो के आस्था का केन्द्र मॉं कामाख्या धाम का मंदिर। जहॉं ना सफाई थी, न दीपक, न झालर।
शायद किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि आस्था के इतने बड़े केन्द्र की देखरेख करने वाला मंदिर प्रशासन इतना निर्लज और संवेदनशील होगा कि मंदिर की सफाई और सजावट नहीं करा पाया होगा, यदि क्षेत्र के गरीब से गरीब आदमी को मंदिर प्रशासन के इस घृणित कार्य का अनुमान रहता तो वह खुद कम से कम एक दीपक लेकर अपने आस्था के केन्द्र पर जरूर पहुँच जाता। उसे झाड़ू एवं सफाई का सामान नहीं मिलता तो वह अपने अंगवस्त्र से मंदिर परिसर को साफ कर देता। मगर दुर्भाग्य देखीये मंदिर प्रशासन को अपने माता की सेवा के जिम्मेदारी दिये बच्चों को इसकी भनक तक नहीं लगी, और करोड़ो की आस्था का केन्द्र हमारे कुल देवी का मंदिर एक प्रकाश के लिए जाने जाने वाले त्यौहार के दिन अँधेर में रख गया और मंदिर के मंहत हो, मंदिर के पुजारी हो, मंदिर समिति के पदाधिकारी हर कोई इस गलती पर एक दूसरे पर ही दोषारोपण करता रहा।
दीपावली की शाम लगभग भदौरा से लौटते समय अचानक मेरी गाड़ी का रूख मंदिर की तरफ हो गया, जब मैने वहॉं की हालत देखी मंदिर पर न कोई सजावट न कोई सफाई न दीपक , न झालर। बस कुछ में मौजूद पंडित जी मंदिर के ऊपर दीपक से एक छोटा सा स्वास्तीक बना रहे थे, दूर दूर पर कुछ जगहो पर बुझे हुए दीपक दिखाई दे रहे थे। मंदिर के पुजारी से कारण पूछा, मंहत से कारण पूछा, मंदिर समीति से कारण जानना चाहा लेकिन वही एक दूसरे पर दोषारोपण, कोई इसका ठोस कारण न बताया और न इस निकृष्ठ कार्य की जिम्मेदारी लिया, कि यह उसकी हरकत है, उसकी गलती है।
कोरोना काल में लाखो रूपये अपने नाम के लिए प्रधानमंत्रि राहत कोष और अध्योध्या मंदिर निमार्ण के लिए देने वाला मंदिर प्रशासन क्या अब इस कदर कंगाल हो गया है कि उसके पास इतना पैसा नहीं कि वह मंदिर त्यौहार पर सजावट और सफाई करा सके ? मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि कौन सा किसी को अपने जेब से पैसा लगा दीपावली की सफाई और सजावट करानी थी, मॉं तो अपना तो अपना मंदिर प्रशासन के जिम्मेदार लोगो को की जेब में लाखो रूपये डाल रही है, फिर क्या दिक्कत थी सजावट और सफाई में? क्या मंदिर के खजाने को कम होने का खतरा था ? या उस खजाने में मंदिर प्रशासन के लोगो के बंदरबॉट में कमी का खतरा था? क्या दीपावली में इस मंदिर के सजावट की परम्परा नहीं थी? या जलाये गये दीपक मेरे जाने के पहले बुझ चुके थे, मैं देख नही पाया ? यह मैं ही नही पूरा क्षेत्र जानना और हर भक्त जानना चाहता है कि मॉं कामाख्या का मंदिर करोड़ो लोगो के आस्था का केन्द्र दीपवाली के त्यौहार में उपेक्षित क्यों था।
कामाख्या मंदिर कोई गली मुहल्ले में बना कोई मंदिर नहीं है, कामाख्या मंदिर कोई किसी शहर में बना किसी देवी-देवता का मंदिर नहीं है। जो हम यह कहें कि कहॉं मंदिरो की सजावट होती है बताईये? कामाख्या मंदिर एक ऐसा मंदिर है जहॉं लाखो लोग एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं बल्कि दजर्नो प्रांन्तो से आते हैं, शक्तिपीठो में इसका महत्व है, आस्था का केन्द्र है, इस लिए उसका महत्व है। मैं कदपि यह नहीं सोचता कि अयोध्या की सजावट को यहॉं उतारा जाये। किसी अन्य शक्तिपीठ या ज्योतिर्लिंगों की तरह यहॉं सब कुछ हो, लाखो दीपक जले, लाखो लाइटे झालर लगे, लेकिन इतना तो होना ही चाहिए कि हमारी आस्था के केन्द्र को देख कर मन प्रफुल्लित हो जाये। विरानापन न रहे।
आज छोटे से छोटे मंदिर हाईटेक हो जाते है, मंदिर के गर्भगृह से लेकर संम्पर्क मार्ग तक उजाला ही उजाला दिखता है, कई किलोमीटर दूर से प्रतिक हो जाता है कि आगे कोई पवित्र जगह आ रही है। उनकी अपनी वेबसाइट, लाइव आरती, व्यवस्था हर कुछ हो चुकी है परन्तु मॉं कामाख्या के मंदिर प्रशासन के जिम्मेदार लोग आज तक ऐसा कुछ नहीं करा पाये। आखिर क्यों ? क्या कारण है इसका? कौन देगा जबाब? क्या हम मान लें कि मंदिर पर सजावट की परम्परा ही नहीं रही है, वहॉं रौशनी झालर की परम्परा नही ? ठीक है ? मान लिया। दीपक से भी सजावाट की परम्परा कामाख्या मंदिर पर नहीं? तो परम्परा तो बहुत कुछ ऐसी ही जो मंदिर पर नहीं है फिर क्यों हो रही है? और सफाई-सजावट में कैसी परम्परा नहीं होती है?मेरी समझ से इसका तो बस तीन कारण हो सकते हैं। मंदिर के प्रति उत्थान की सोच नीजी स्वार्थ के नीचे दबना, मंदिर प्रशासन का संवेदनाहीन होने के कारण महातमो का निरंकुश होना और तीसरा धन की कमी ।अरे महाराज धन की कमी कहॉं है ? दीपावली के केवल 1 सप्ताह पूर्व तक के ही दान में प्राप्त राशि को यदि रोक दिया जाता तो मंदिर परिसर की भव्य सजावट हो जाती। इस लिए धन की कमी तो मेरी समझ में से है ही नहीं । शेष इनमें से कौन सा कारण है ?वह तो मंदिर प्रशासन ही बतायेगा, लेकिन मेरा दावा है कि मॉं अपनी उपेक्षा एक सीमा तक ही बर्दाश्त करेगी, इसके पहले की वह सीमा टूट जाये, इस धरती का कोई भी इंसान इसमें जिम्मेदार हो अपने गैर जिम्मेदाराना हरकत को स्वीकार कर भूल सुधार ले, वर्ना आखों की रौशनी अश़्को के बहाव से चली जायेगी,मगर अश़्क आने का जो कारण होगा वह घटेगा नहीं बल्कि बढ़ता ही जायेगा। इस लिए कम से कम मॉं कामाख्या के मंदिर को अपनी दुनियादारी से दूर रहते हुए यहॉं ऐसा कुछ करीये जिससे विश्व में यहॉं की पहचान बन सके, यहॉं की व्यवस्था का गुणगान हो सके नहीं। वरर्ना भक्त तो मॉं के दरवार में लाठी खाकर, भूखे रह कर, लाइनो में लग कर भी, कष्ठ सह कर भी हाजिरी लगायेगेें, अपनी अरज गरज कहेगें लेकिन इसका खामियाजा उठायेगें आप मंदिर सीमिति के लोग, वहॉं की व्यवस्था में लगे लोग, मंदिर को अपनी जागीर समझने वाले लोग।
अखंड गहमरी