उठीये मेरे पति परमेश्वर सुबह हो गई। अब तो ऑंखे खोलीये। ऐसी कुछ
प्यार भरी आवाज मेरे कानो में जा रही थी। मैं मंद-मंद मुस्काता हुआ
बिस्तर पर करवट बदलते हुए इस आवाज का सुख ले रहा था, जो अब शायद कभी सुनने
को नहीं मिलती। मेरे सर ने माथे पर एक हल्की चपत का एहसास किया तो मेरी
नींद खुल गई। सामने अपनी वाइफ होम के हाथो में चाय का प्याला देख कर मुझे
अजीब लगा। मैंने पहले तो अपने शरीर पर चिकाेंटी काट कर स्वपन न देखने की
पुष्टी किया। फिर खिड़की खोल कर यह देखने की चेष्ठा किया कि आज सूर्य देव
कही पश्चिम दिशा से तो नहीं निकल पड़े, मगर वो भी अपनी सही दिशा से थे।
मैंने अपने वाइफ होम के सिर पर हाथ रखा कि कही उसे ज्वर तो नहीं जिससे वह
आज सुबह सुबह प्रेम की भाषा बोलते हुए मेरे लिए चाय का प्याला लेकर आ गई।
तभी अचानक मुझे अखंड गहमरी का वो शेर याद आ गया कि
सुबह उठ कर कभी वो प्यार से बोले समझ लेना
अभी तुम को लगा मक्खन, चलो झाडू लगाना है।।
इस चाय के पीछे कौन सा राज छिपा हुआ हुआ हैं, लब खोलो, कुछ बोलो, तुम्हारी कसम मेरे दिल में तुफान आ गया है। मैं ने उसे प्यार से कहते हुए उसके चरणो में अपना सिर नवा बैठा और उसके मुँख से निकलने वाले आशीर्वाद रूपी बचन की प्रतिक्षा करने लगा।
उसने बड़े प्यार से मिला सर अपने हाथो से दबाते मेरे खडखडिया बलम इस बार होली में माइके जाने जाना हैं, अपनी तैयारी करो, रिजर्वेशन कराओ* सीधा प्रेम की चासनी में डूबा हुआ हिटलर साही फरमान सुना अौर मैं अपना दिल लेकर बैठ गया।
मैं अब सीधा अपनी तैयारी कैसे करूँ सोचने लगा क्योंकि उसके मुहँ से निकले शब्द तो पत्थर की लकीर होते हैं, बदलने की हिम्मत देवो में नहीं तो फिर मैं तो आम मानव हूँ, कैसे बदल सकता हूँ, फिर भी एक प्रयास किया, मैने अपने आराध्य देव डा0 रमेश तिवारी जी को फोन लगाया कि हो सकता है हनुमान की भूमिका में आकर मेरी वाइफ होम को कुछ समझा सकें, क्योकि शहर न सही प्रांत तो एक ही है, कुछ तो राशि मिलेगी ही, परन्तु नतीजा सिफर ही निकला।
मगर आप हकीकत मानीये यह तो मैं दिखावे के लिए कर रहा था, खुशी तो मुझे भी होली में ससुराल जाने की बहुत थी। साली, सरज के साथ के साथ रंगो की ठेला-ठेली, और फिर मेरी पूर्व प्रेमिका गजगमिनियॉं भी तो आज कल वही थी, अपने शहर में, उससे मिलने का भी सुनहरा अवसर मेरी वाइफ होम ने प्रदान कर दिया था।
मेरे दहेज में मिली चार चक्के की गाड़ी अब खटारा हो चुकी थी, मैैनें बार बार अपनी सासूँ मॉं से कहा कि आपका दिया दो प्रोडेक्ट खराब हो गया है, बदल दें, मगर एक ही जबाब मिलता , हैंडिल विथ केयर नहीं होगा तो यही हाल होगा। मैं एक खटारा प्रोडेक्ट को छोड कर दूसरे प्रोडेक्ट को लेकर लौ पथ गामिनी विश्राम स्थल की तरफ प्रस्थान कर गया। भारतीय परम्परा के अनुसार अपने निर्धारित समय से मात्र दो घंटा विलम्ब से मेरी लौ पथ्ज्ञ गामिनी कनघरियापुर रेलवे स्टेशन पर पहुँची, इतने देरे में मेरी वाइफ होम ने जाे तांडव मचाया कि कनघरियापुर रेलवे स्टेशन पर तैनात लौ पथ गामिनी विश्राम स्थल सरंक्षक साधु यादव भी डोल गये, जय श्री राम बोल गये। गिरते पडते हम आखिर पहुँच ही गये अपने सबसे बड़े तीर्थ स्थल टटमरियापुर जक्शन। एक गदहा खड़ा, उसकी सवारी कर हम उस मंदिर में प्रवेश किये जिस मंदिर से एक गौ जो अब शेर से भी अधिक खतरनाक है लेकर मैं निकला था।
सुबह ही होली का पवित्र पावन त्यौहार था, मैं चारो तरफ अपने कान दें कर सुनने की कोशिश कर रहा था कि शायद कहीं होली पर होने वाले फाग गीतो काे जलसे की अावाज आ जाये, मगर मेरे कानो को दूर दूर तक वह आवाज सुनने को नहीं मिली, दूर दूर तक कही, ढोल मजीरे की आवाज सुनने को नहीं मिली, मगर मैं चुपचाप बैठ जाऊँ ये तो हो नही सकता था।
सुबह होली का त्यौहार, मैं ससुराल में और सब शांत रहें ऐसा अगर हो जाये तो फिर अाप में और मुझमें फर्क ही क्या रह जायेगा।
बीस वर्ष पुराना दामाद ससुराल पहुँचा था, कुछ विशेष की आशा करना तो बेकार ही था, एक मिठाई के साथ पानी पी चुका था, अब पेट पूजा की तैयारी थी, अागे खाना पड़ा था, एक सब्जी, एक दाल, दही, पापड,धी आचार और सामने डिस्को डानियॉं के रूप में साली और सरज पानी का जग और गिलास रख कर पीछे मुडी ही थी कि मैने दाल, सब्जी, दही से उनके गोरे गोर शरीर को मटमैला कर दिया, और उनके मुँंख की जगह उनके सिर जग और गिलासो के पानी से पवित्र कर दिया। मचा हंगामा, दो मेरी तरफ ऐसी दौड़ी जैसे फ्रॉंक पहने वाली अवस्था में तितलियों की तरफ दौडती थी । मैं बच कर भाग, लेकिन घपतालिस कुन्तल पडतालिस किलो ततियालिस सौ ग्राम की अपनी दोनो आधी घर वालीयों और अपनी अपनी वाइफ आउटर यानि साले की बीबी ने जो मेरी चटनी बनाई, मेरे शरीर का रोम राेम* आईहो दादा, आईहो माई* चिल्लााने लगा।
नींद तो दर्द के से दूर थी मगर उस में भी एक खुशी थी एक सुख था साली और सरजह से पिटने का सुख जो आप तो कभी पा ही नहीं सकते क्योकि आप तो ठहरे शहर के बड़े प्रिष्ठित आदमी, आधुनिक जमाने के माानव, रिश्तों के सुख काे अभद्रता का नाम देकर, बकवास की श्रेणी में रहते हुए महिलाअों की मान सम्मान की बात करते हैं, और मैं तो इसे सूली पर चढा देता हूंँ।
रात तो जैसे तैसे बीत गई, सुबह की कल्पना करते करते रात बीत जाने की दुआ कर रहा था, मगर न ये रात बीतने का नाम नहीं ले रही थी और मेरी मंदिर के अन्दर से आने वाली आवाजे खत्म होने का नाम ले रही थी। सुबह गजगमिनियॉं से मिलने के स्वपन देखते देखते न जाने कब ऑंख लग गई।
ऑंख तो तब ख्ुाली जब मेरी वाइफ होम के परम पूज्य गदहे भाई के शरीफ औलाद ने मेरे ऊपर घडो का पानी फैक अपनी तोलती आवाज में बोल बैठा पूपा जी पूपा जी बुल्ला न मानो लोली है।
मैं ने उठते हुए उसकी मॉं को लेकर एक सुन्दर, सलीके दार शब्द का प्रयोग किया और दोडा कर गोद में ले लिया।
अभी उसे गोद में लिया ही था कि
चारो तरफ घंटिया बजने लगी, फि़जा में एक अजीब सी खुशबू फैलने लगी, सूरज छिपने लगा, फूल खिलने लगें, मैं समझ गया कि मेरी पूर्व प्रेमिका गजगमिनियॉं कही पास आ ही है। मैं चारो तरफ ऐसे देखने और भागने लगा जैसा जैसे कस्तूरी की तलाश में मृग, तभी मेरे नजर एक पेड़ की तरफ गई उसके पीछे एक काले परिधानो में सजी एक सुन्दर काया नजर आई आयी,मैं उधर भागा।
तभी मेरे पीठ पर एक जोरदार प्रहार हुआ, मैं कुछ समझ पाता उसके पहले ही आवाज सुनाई दी,
कनतालिस घंटे हो गये तुम्हें आये कहॉं थे अभी तक। अपना सिर उठा कर देखा तो हाथ में बिलतालिस नम्बर की सेंडल लिये मेरी गजगमिनियॉं मेरे सामने थी। चेहरा दूध की तरह सफेद, गालो पर लाली, मैं तो बाग बाग हो गया
मैं पहले तो झुक उसके चरणो में अपना प्रणाम निवेदित किया, वह हँसते हुए बोल पड़ी तुम नहीं सुधरो के मेरे लभोरनदास, उसकी हसी और बाते सुन कर मेरा दिल फुटबाल की तरह कूदने लगा। उसकी घडकन बढने लगी
मेरा दिल उसके दिल से मिलने को बेताबा होने लगा। मैंने धीरे से कहा कैसी हो। बस कट रही हैं जिन्दगी उसने जबाब दिया। मैं सहम उठा। क्यों मेरे खटछोडन डीयर ऐसी उदासी क्यों, कुछ नहीं बस ऐसे ही।
मैं तो तुम्हारे साथ होली खेलने उतनी दूर से चला आया और तुम हो कि ऐसी उदासी से बोल रही हो।
तब खेले न होली, मगर खेलोगे कैसे अब तो तुम आधुनिक हो गये हो। होली याद भी है कैसे खेली जाती है, मुझे तो नहीं लगता, उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा।
पागल हो गई हो क्या गजगमिनियॉं खोली खेलना भी कोई भूलने की चीज है, पानी में रंग डालो सब पर फेंको, सबको रंगो हो गई होली ।
वह जोर से हसी उसकी जोर की हसी से पूरा बाग थररा गया ऊपर के पेड पर लटक रहा एक सिरफल टूट कर सीधे मेरे सर पर गिरा, मैं सर पकड़ कर बैठ गया।
मेरे बैठते ही वह पेरशान अपने हाथो को मेरे सर पर रखते हुए बोली तेज चोट लगी क्या, मैं ने भी उसी तेजी से जबाब दिया नहीं जी, फूल की बातो से गिरे फूल से भी किसी को चोट लगती है क्या, वह तो मुझसे प्रेम करने आया था, और प्रेम के निशान में सिर पर एक जख़्म दे गया ताकि मैं उसे याद रखूँ।
तब तो कोई बात नहीं ऐसे यह सिरफल बहुत हिम्मती है, जो मेरी मौजूदगी में भी तुमसे प्यार करने चला आया, उसने उस सिरफल को हाथ में उठाते हुए कहा।
चलो अब यह सिरफल गिर ही गया तो इसको भी तोडते हैं रस निकलाते हैं और तुमको पिलाते हैं।मैने बुरा सा मुहँ बनाया। क्यों तुमको अच्छा नहीं लगता। आेह आज के लोगो को सिरफल नहीं अंगूर की रस पंसद हैं, जौ का रस पंसद है। सही न और उसमें भी आज तो होली हैं, रंग अबीर की जगह मॅास-मदिरा का त्यौहार
उसकी बाता सुन कर बिना हाथ दिये चौराहे पर मुड़ते मोटसाइकिल चालक की तरह घूम गया लेकिन कर क्या सकता था, बोलने की हिम्मत तो थी नहीं।इस लिए मुस्कुरा पड़ा। छोड़ो जी ये बाते और प्यार की बातें करें कुछ आज होली है हँसते हैं मुस्कुराते हैं।
वह ताव में गा गई। प्यार, हसंना, होली खेलना पूरे जंगली हो क्या, मेरे कनसूटिया प्रेमी
मैं आज उसकी बातो को समझ नहीं पा रहा था आखिर क्या हो गया था उसको, मेरी तो औकात नही थी जो उससे सीधे पूछ देता, क्योंकि एक तो उसके हाथो में वही सिरफल था जो कुछ देर पहले मेरे सर से प्रेम चुका है दूसरे उसके पॉंवो में बेहतरीन चप्पल, जो कभी भी मेरे गोरे, लाल , मक्खन से मुलायम गालो से प्रेम कर जाते।
फिर भी जो मार से डर जाये वह मैं क्या। रमेश तिवारी का जी का नाम लिया और कूद गया आग में और पूछ बैठा मेरी अठलिनियॉंं बताओं आखिर बात क्या है, इस होली में तुम्हारे चेहरे और शब्दो का भाव बिगडा क्यों है।
कुछ नहीं, वह उदासी से बोलती, आओ चलते है उधर बैठते है। मैं उसके पीछे पीछे चल पड़ा और वह जैसे यादो की दुनिया में खाे गई, उसने मेरा हाथ अपने हाथो में लेते हुए बोली, याद है खड़खडीयॉं होली का वो रंग जो महीनो नहीं छूटता था। महीनो ढोल, तासा, मजीरे की आवाज कानो में गूँजती थी।
मैं कुछ धीरे धीरे समने लगा था उसकी उदासी का कारण
मगर मैं कुछ बोल तो सकता नहीं था, इस लिए उसकी बातो को चुपचाप सुनने लगा, और उसकी उदासी में भी हँसी का तड़का लगाने लगा, हॉं मेरी गलछोडी डीयर सब याद है, कैसे कूदती थी दिवारो पर चढकर तुम, जैसे हिरनी। मेरी बात सुन कर वह कुछ शर्माई।
कुछ सकुचाई। हॉं और तुम भी तो कम नहीं थी, मेरे बाबा को भॉंग पिला कर दादी को सोते हुए खटिया सहित उठा कर होलिका दहन पर ले जाकर गिरा दिये और उनकी खाट को होलिका में फेंक दिये, जब वह गाली देने लगी तो बाबा के हाथ में रंग भरी बाल्टी दे दे दिया बाबा ने भी बुरा न मानो होली है कहते हुए दादी को नहलावा दिये। दादी का सारा गुस्सा और खटीया जलने का दर्द भूल कर शर्माती हुई वहॉं से तुम को गाली देते घर चली आई। वह रात तो हसते हसते बीती।
हॉ याद है, मगर डीयर वो बातें कहॉं अब, मैने भी अंग्रेजी शब्द का प्रयोग किया। पता ही नहीं चला हम दोनो चलते चलते कब पास की एक बस्ती की तरफ आ गये। मेरी निगाह जब उस बस्ती की तरह गई तो मैनें गजगजिनियॉं से कहा मेरी दतखोपड डीयर ये हम लोग कहॉं आ गये, इस बस्ती में तो होली के दिन भूल के भी नहीं आता कोई।
क्यों उसने कहा
याद नहीं है इस बस्ती की होली
घरो के दिवारो पर चढ कर कही युवा तो कही बच्चे भाभीयों पर रंग डालने के कैसे कैसे हथकड़े अपनाते हैं, तो कही भाभीयॉं छत के कोने से देवरो पर रंग डालने के लिए कूद फॉंद करती है।
होली गाने वालो की टोली जिसको पकड़ लेगी वह दिन भर कही का नहीं रह जायेगा ।
भागो यहॉं से।
वह जोड से हस पड़ी अरे मेरे लतखोर बलम ये तो कही पर खडे बच्चे ऊपर से रंग डालते तो कही शराब के नशे में घूमते लोग दिखाई दे रहे हैं। अब वो बातें अध्याय बन चुकी हैं।
अब होली एक त्यौहार नहीं एक मजूबरी बन गई हैं, त्यौहार तो कब का मर चुका हैं, अब तो होली पर
शेववाटर के जुमले सुनाई देते है।
मैने कहा ऐसी बात नहीं हैं, अभी भी हम होली खेलते हैं, पकवान बनाते है कहॉं कुछ बदला है मेरी फुलझरी, मैने मजे लेने के लिए बोला,।
चटाक चटाक दो झापड मेरे गाल पर उसने रसीद कर दिये, तुम्हें दिखाई नहीं देता या तुम अंधे हो
लात खाने की आदत तुम्हारी नही जायेगी कहते हुए वह गुस्से से काप गई।
अब न हम होली खेलते हैं न होली मनाते हैं, हम तो बस आध्ुानिकता का चादर ओढ कर अपनी सभ्यता अपने संस्कारो को भूल कर, सुख की खाल पहनते हैं।
तेज चोट लगी क्या, उसने अपने गुस्से को नीचे कर मुझसे पूछा, नहीं चोट नहीं लगी,ऐसे लगा जैसे कोई फूल गालो से टकराया हो, मैने जबाब दिया।
चलो तब ठीक है, उसने धीरे से कहा।
ये बताओं की अब तुम्हें कही रिश्तो की मिठास दिखाई देती हैं, देवर-भाभी की हँसी मज़ाक, जीजा-साली की चुलह, ननद-भौजाई का वह रिश्ता, नंनदोसी-भौजाई का रिश्ता या फिर साले सरहज का रिश्ता।
मुझे तब तो अब हर रिश्ता अंकल-आंटी, पर सिमटता दिखाई देता है।
मिठाथ की जगह थोथा सम्मान दिखाई देता है। समय की कमी के भूत पर विलासिता के ताक पर रखा हुआ अंहकार दिखाई देता है।
वह एक सास में बोल गई।
हा गजगमिनियॉं से बात तो सही कर रही हो, मैने चेहरा घुमाते हुए कहा।
अब तो रिश्तो के हसी मजाक असम्भ्यता की निशानी बन गये हैं। बच्चों को रिश्तो के नाम और अहमित की जगह हम केवल अंकल -आन्टी बता कर खोलता आदर्शवाद सिखा रहे है। त्यौहारों को बस नाम पर ठो रहें है, और अादर्श केवल बयानो में सुन और लेखनी में पढ रहे हैं।
मेरा इतना कहना था कि मेरे सिर पर एक जोरदार प्रहार हुआ मैं गिर पड़ा मैं कुछ समझ पाता इसके पहले गजगमिनियॉं मेरे सीने पर सवार हो गई। हाथो में लिये रंग को मेरे पूरे चेहरे पर मलते हुए कहा कि यही बात तभी से समझा रही हूँ, सोच रही हूँ, कहॉं गया था तुम्हार दिमाग, घास चरने।
मैं ने करवट बदला उसे नीचे गिराया मगर वह संभल चुकी थी और सीधे समाने की तरह दौड पड़ी, मैने उसे पकड़ा और बुरा न मानो होली है कहते हुए पास के तालाब में फेंक दिया, वह तालाब आज सूना पड़ा था, कभ्ाी इस तालाब के किनारे कही युवाओं का तो, कही बूढो तो कही बच्चों का झुन्ड होली के दिन रंग झुडाता दिखाई देता, तो किसी कोने पर महिलाएं अपने रंग को छुडाते हुए अपने नंदोई और देवरो को गालीयॉं सुना रही होती थी।
तालाब ने मेरी तरह देख कर पूछा कहों साहित्यकार साहब कैसे हो, आज तो मुझे सुना देख कर तुम्हें आभास हो गया होगा कि तुम अब सभ्य समाज में जी रहे हो, आधुनिक हो गये हो, तुम्हारे बच्चे उन सब से दूर हो गये हैं, जिनके पास तुम रहा करते थे।
अच्छा है न तुम्हारा ये सम्भ्य एकल समाज, जहॉं तुम्हारी खुशियाें का दायरा छोटा अौर सिमटा हैं, त्यौहारो की मौलिकता, खत्म हो चुकी है।
मैं उस तलाब के सवाल के जबाब के बारे में कुछ सोचता मगर तभी पीछे से आकर मेरी साली और सरहज ने एक लात लगाते हुए कहा कि हम इनको चारो तरफ खोज रहे हैं और ये यहॉं छुपे हुए हैं मैं कुछ सोच पाता इसके पहले वो रंग भरी बाल्टी में ऊपर डाल बैठी, मैं ऑंखे मतला हुआ सामने देखा तो पोरखरे के दूसरे छोर पर तैर कर पहुँची गजगमिनियॉं मुस्कुरा रही थी, मगर उसके कहें हुए शब्द और पोखरे का सवाल मेरे रंग में भीगें हुए शरीर को भी जला रहा था। एक सवाल छोड रहा था कि क्या कभी हम फिर लौट पायेगें अपनी सभ्यता और संस्कृति की तरफ, फिर कभी हम मना पायेगें अपनी होली उसके के रूप के अनुसार क्या हम फिर जी कभी जी सकेगें अपने रिश्तो के साथ, अपने अपनो के साथ, अपने चुलह, हसी ठिठोली के साथ, क्या हम दे पायेगें अपने बच्चों में बो पायेगें सम्भ्यता और संस्कृति का, रिश्तो के अहमित का उनके साथ मिलने वाले आंन्नद का बीच, कहा पायेेगें एक सच्चे सुख का एहसास या फिर शहर की चकाचौध में, रिश्तो के बनावटी पन में, सुखो के बनावटी पन में खो जायेगा सब सु:ख, सच्चा जीवन ।
आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ आपका अखंड गहमरी ।
तभी अचानक मुझे अखंड गहमरी का वो शेर याद आ गया कि
सुबह उठ कर कभी वो प्यार से बोले समझ लेना
अभी तुम को लगा मक्खन, चलो झाडू लगाना है।।
इस चाय के पीछे कौन सा राज छिपा हुआ हुआ हैं, लब खोलो, कुछ बोलो, तुम्हारी कसम मेरे दिल में तुफान आ गया है। मैं ने उसे प्यार से कहते हुए उसके चरणो में अपना सिर नवा बैठा और उसके मुँख से निकलने वाले आशीर्वाद रूपी बचन की प्रतिक्षा करने लगा।
उसने बड़े प्यार से मिला सर अपने हाथो से दबाते मेरे खडखडिया बलम इस बार होली में माइके जाने जाना हैं, अपनी तैयारी करो, रिजर्वेशन कराओ* सीधा प्रेम की चासनी में डूबा हुआ हिटलर साही फरमान सुना अौर मैं अपना दिल लेकर बैठ गया।
मैं अब सीधा अपनी तैयारी कैसे करूँ सोचने लगा क्योंकि उसके मुहँ से निकले शब्द तो पत्थर की लकीर होते हैं, बदलने की हिम्मत देवो में नहीं तो फिर मैं तो आम मानव हूँ, कैसे बदल सकता हूँ, फिर भी एक प्रयास किया, मैने अपने आराध्य देव डा0 रमेश तिवारी जी को फोन लगाया कि हो सकता है हनुमान की भूमिका में आकर मेरी वाइफ होम को कुछ समझा सकें, क्योकि शहर न सही प्रांत तो एक ही है, कुछ तो राशि मिलेगी ही, परन्तु नतीजा सिफर ही निकला।
मगर आप हकीकत मानीये यह तो मैं दिखावे के लिए कर रहा था, खुशी तो मुझे भी होली में ससुराल जाने की बहुत थी। साली, सरज के साथ के साथ रंगो की ठेला-ठेली, और फिर मेरी पूर्व प्रेमिका गजगमिनियॉं भी तो आज कल वही थी, अपने शहर में, उससे मिलने का भी सुनहरा अवसर मेरी वाइफ होम ने प्रदान कर दिया था।
मेरे दहेज में मिली चार चक्के की गाड़ी अब खटारा हो चुकी थी, मैैनें बार बार अपनी सासूँ मॉं से कहा कि आपका दिया दो प्रोडेक्ट खराब हो गया है, बदल दें, मगर एक ही जबाब मिलता , हैंडिल विथ केयर नहीं होगा तो यही हाल होगा। मैं एक खटारा प्रोडेक्ट को छोड कर दूसरे प्रोडेक्ट को लेकर लौ पथ गामिनी विश्राम स्थल की तरफ प्रस्थान कर गया। भारतीय परम्परा के अनुसार अपने निर्धारित समय से मात्र दो घंटा विलम्ब से मेरी लौ पथ्ज्ञ गामिनी कनघरियापुर रेलवे स्टेशन पर पहुँची, इतने देरे में मेरी वाइफ होम ने जाे तांडव मचाया कि कनघरियापुर रेलवे स्टेशन पर तैनात लौ पथ गामिनी विश्राम स्थल सरंक्षक साधु यादव भी डोल गये, जय श्री राम बोल गये। गिरते पडते हम आखिर पहुँच ही गये अपने सबसे बड़े तीर्थ स्थल टटमरियापुर जक्शन। एक गदहा खड़ा, उसकी सवारी कर हम उस मंदिर में प्रवेश किये जिस मंदिर से एक गौ जो अब शेर से भी अधिक खतरनाक है लेकर मैं निकला था।
सुबह ही होली का पवित्र पावन त्यौहार था, मैं चारो तरफ अपने कान दें कर सुनने की कोशिश कर रहा था कि शायद कहीं होली पर होने वाले फाग गीतो काे जलसे की अावाज आ जाये, मगर मेरे कानो को दूर दूर तक वह आवाज सुनने को नहीं मिली, दूर दूर तक कही, ढोल मजीरे की आवाज सुनने को नहीं मिली, मगर मैं चुपचाप बैठ जाऊँ ये तो हो नही सकता था।
सुबह होली का त्यौहार, मैं ससुराल में और सब शांत रहें ऐसा अगर हो जाये तो फिर अाप में और मुझमें फर्क ही क्या रह जायेगा।
बीस वर्ष पुराना दामाद ससुराल पहुँचा था, कुछ विशेष की आशा करना तो बेकार ही था, एक मिठाई के साथ पानी पी चुका था, अब पेट पूजा की तैयारी थी, अागे खाना पड़ा था, एक सब्जी, एक दाल, दही, पापड,धी आचार और सामने डिस्को डानियॉं के रूप में साली और सरज पानी का जग और गिलास रख कर पीछे मुडी ही थी कि मैने दाल, सब्जी, दही से उनके गोरे गोर शरीर को मटमैला कर दिया, और उनके मुँंख की जगह उनके सिर जग और गिलासो के पानी से पवित्र कर दिया। मचा हंगामा, दो मेरी तरफ ऐसी दौड़ी जैसे फ्रॉंक पहने वाली अवस्था में तितलियों की तरफ दौडती थी । मैं बच कर भाग, लेकिन घपतालिस कुन्तल पडतालिस किलो ततियालिस सौ ग्राम की अपनी दोनो आधी घर वालीयों और अपनी अपनी वाइफ आउटर यानि साले की बीबी ने जो मेरी चटनी बनाई, मेरे शरीर का रोम राेम* आईहो दादा, आईहो माई* चिल्लााने लगा।
नींद तो दर्द के से दूर थी मगर उस में भी एक खुशी थी एक सुख था साली और सरजह से पिटने का सुख जो आप तो कभी पा ही नहीं सकते क्योकि आप तो ठहरे शहर के बड़े प्रिष्ठित आदमी, आधुनिक जमाने के माानव, रिश्तों के सुख काे अभद्रता का नाम देकर, बकवास की श्रेणी में रहते हुए महिलाअों की मान सम्मान की बात करते हैं, और मैं तो इसे सूली पर चढा देता हूंँ।
रात तो जैसे तैसे बीत गई, सुबह की कल्पना करते करते रात बीत जाने की दुआ कर रहा था, मगर न ये रात बीतने का नाम नहीं ले रही थी और मेरी मंदिर के अन्दर से आने वाली आवाजे खत्म होने का नाम ले रही थी। सुबह गजगमिनियॉं से मिलने के स्वपन देखते देखते न जाने कब ऑंख लग गई।
ऑंख तो तब ख्ुाली जब मेरी वाइफ होम के परम पूज्य गदहे भाई के शरीफ औलाद ने मेरे ऊपर घडो का पानी फैक अपनी तोलती आवाज में बोल बैठा पूपा जी पूपा जी बुल्ला न मानो लोली है।
मैं ने उठते हुए उसकी मॉं को लेकर एक सुन्दर, सलीके दार शब्द का प्रयोग किया और दोडा कर गोद में ले लिया।
अभी उसे गोद में लिया ही था कि
चारो तरफ घंटिया बजने लगी, फि़जा में एक अजीब सी खुशबू फैलने लगी, सूरज छिपने लगा, फूल खिलने लगें, मैं समझ गया कि मेरी पूर्व प्रेमिका गजगमिनियॉं कही पास आ ही है। मैं चारो तरफ ऐसे देखने और भागने लगा जैसा जैसे कस्तूरी की तलाश में मृग, तभी मेरे नजर एक पेड़ की तरफ गई उसके पीछे एक काले परिधानो में सजी एक सुन्दर काया नजर आई आयी,मैं उधर भागा।
तभी मेरे पीठ पर एक जोरदार प्रहार हुआ, मैं कुछ समझ पाता उसके पहले ही आवाज सुनाई दी,
कनतालिस घंटे हो गये तुम्हें आये कहॉं थे अभी तक। अपना सिर उठा कर देखा तो हाथ में बिलतालिस नम्बर की सेंडल लिये मेरी गजगमिनियॉं मेरे सामने थी। चेहरा दूध की तरह सफेद, गालो पर लाली, मैं तो बाग बाग हो गया
मैं पहले तो झुक उसके चरणो में अपना प्रणाम निवेदित किया, वह हँसते हुए बोल पड़ी तुम नहीं सुधरो के मेरे लभोरनदास, उसकी हसी और बाते सुन कर मेरा दिल फुटबाल की तरह कूदने लगा। उसकी घडकन बढने लगी
मेरा दिल उसके दिल से मिलने को बेताबा होने लगा। मैंने धीरे से कहा कैसी हो। बस कट रही हैं जिन्दगी उसने जबाब दिया। मैं सहम उठा। क्यों मेरे खटछोडन डीयर ऐसी उदासी क्यों, कुछ नहीं बस ऐसे ही।
मैं तो तुम्हारे साथ होली खेलने उतनी दूर से चला आया और तुम हो कि ऐसी उदासी से बोल रही हो।
तब खेले न होली, मगर खेलोगे कैसे अब तो तुम आधुनिक हो गये हो। होली याद भी है कैसे खेली जाती है, मुझे तो नहीं लगता, उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा।
पागल हो गई हो क्या गजगमिनियॉं खोली खेलना भी कोई भूलने की चीज है, पानी में रंग डालो सब पर फेंको, सबको रंगो हो गई होली ।
वह जोर से हसी उसकी जोर की हसी से पूरा बाग थररा गया ऊपर के पेड पर लटक रहा एक सिरफल टूट कर सीधे मेरे सर पर गिरा, मैं सर पकड़ कर बैठ गया।
मेरे बैठते ही वह पेरशान अपने हाथो को मेरे सर पर रखते हुए बोली तेज चोट लगी क्या, मैं ने भी उसी तेजी से जबाब दिया नहीं जी, फूल की बातो से गिरे फूल से भी किसी को चोट लगती है क्या, वह तो मुझसे प्रेम करने आया था, और प्रेम के निशान में सिर पर एक जख़्म दे गया ताकि मैं उसे याद रखूँ।
तब तो कोई बात नहीं ऐसे यह सिरफल बहुत हिम्मती है, जो मेरी मौजूदगी में भी तुमसे प्यार करने चला आया, उसने उस सिरफल को हाथ में उठाते हुए कहा।
चलो अब यह सिरफल गिर ही गया तो इसको भी तोडते हैं रस निकलाते हैं और तुमको पिलाते हैं।मैने बुरा सा मुहँ बनाया। क्यों तुमको अच्छा नहीं लगता। आेह आज के लोगो को सिरफल नहीं अंगूर की रस पंसद हैं, जौ का रस पंसद है। सही न और उसमें भी आज तो होली हैं, रंग अबीर की जगह मॅास-मदिरा का त्यौहार
उसकी बाता सुन कर बिना हाथ दिये चौराहे पर मुड़ते मोटसाइकिल चालक की तरह घूम गया लेकिन कर क्या सकता था, बोलने की हिम्मत तो थी नहीं।इस लिए मुस्कुरा पड़ा। छोड़ो जी ये बाते और प्यार की बातें करें कुछ आज होली है हँसते हैं मुस्कुराते हैं।
वह ताव में गा गई। प्यार, हसंना, होली खेलना पूरे जंगली हो क्या, मेरे कनसूटिया प्रेमी
मैं आज उसकी बातो को समझ नहीं पा रहा था आखिर क्या हो गया था उसको, मेरी तो औकात नही थी जो उससे सीधे पूछ देता, क्योंकि एक तो उसके हाथो में वही सिरफल था जो कुछ देर पहले मेरे सर से प्रेम चुका है दूसरे उसके पॉंवो में बेहतरीन चप्पल, जो कभी भी मेरे गोरे, लाल , मक्खन से मुलायम गालो से प्रेम कर जाते।
फिर भी जो मार से डर जाये वह मैं क्या। रमेश तिवारी का जी का नाम लिया और कूद गया आग में और पूछ बैठा मेरी अठलिनियॉंं बताओं आखिर बात क्या है, इस होली में तुम्हारे चेहरे और शब्दो का भाव बिगडा क्यों है।
कुछ नहीं, वह उदासी से बोलती, आओ चलते है उधर बैठते है। मैं उसके पीछे पीछे चल पड़ा और वह जैसे यादो की दुनिया में खाे गई, उसने मेरा हाथ अपने हाथो में लेते हुए बोली, याद है खड़खडीयॉं होली का वो रंग जो महीनो नहीं छूटता था। महीनो ढोल, तासा, मजीरे की आवाज कानो में गूँजती थी।
मैं कुछ धीरे धीरे समने लगा था उसकी उदासी का कारण
मगर मैं कुछ बोल तो सकता नहीं था, इस लिए उसकी बातो को चुपचाप सुनने लगा, और उसकी उदासी में भी हँसी का तड़का लगाने लगा, हॉं मेरी गलछोडी डीयर सब याद है, कैसे कूदती थी दिवारो पर चढकर तुम, जैसे हिरनी। मेरी बात सुन कर वह कुछ शर्माई।
कुछ सकुचाई। हॉं और तुम भी तो कम नहीं थी, मेरे बाबा को भॉंग पिला कर दादी को सोते हुए खटिया सहित उठा कर होलिका दहन पर ले जाकर गिरा दिये और उनकी खाट को होलिका में फेंक दिये, जब वह गाली देने लगी तो बाबा के हाथ में रंग भरी बाल्टी दे दे दिया बाबा ने भी बुरा न मानो होली है कहते हुए दादी को नहलावा दिये। दादी का सारा गुस्सा और खटीया जलने का दर्द भूल कर शर्माती हुई वहॉं से तुम को गाली देते घर चली आई। वह रात तो हसते हसते बीती।
हॉ याद है, मगर डीयर वो बातें कहॉं अब, मैने भी अंग्रेजी शब्द का प्रयोग किया। पता ही नहीं चला हम दोनो चलते चलते कब पास की एक बस्ती की तरफ आ गये। मेरी निगाह जब उस बस्ती की तरह गई तो मैनें गजगजिनियॉं से कहा मेरी दतखोपड डीयर ये हम लोग कहॉं आ गये, इस बस्ती में तो होली के दिन भूल के भी नहीं आता कोई।
क्यों उसने कहा
याद नहीं है इस बस्ती की होली
घरो के दिवारो पर चढ कर कही युवा तो कही बच्चे भाभीयों पर रंग डालने के कैसे कैसे हथकड़े अपनाते हैं, तो कही भाभीयॉं छत के कोने से देवरो पर रंग डालने के लिए कूद फॉंद करती है।
होली गाने वालो की टोली जिसको पकड़ लेगी वह दिन भर कही का नहीं रह जायेगा ।
भागो यहॉं से।
वह जोड से हस पड़ी अरे मेरे लतखोर बलम ये तो कही पर खडे बच्चे ऊपर से रंग डालते तो कही शराब के नशे में घूमते लोग दिखाई दे रहे हैं। अब वो बातें अध्याय बन चुकी हैं।
अब होली एक त्यौहार नहीं एक मजूबरी बन गई हैं, त्यौहार तो कब का मर चुका हैं, अब तो होली पर
शेववाटर के जुमले सुनाई देते है।
मैने कहा ऐसी बात नहीं हैं, अभी भी हम होली खेलते हैं, पकवान बनाते है कहॉं कुछ बदला है मेरी फुलझरी, मैने मजे लेने के लिए बोला,।
चटाक चटाक दो झापड मेरे गाल पर उसने रसीद कर दिये, तुम्हें दिखाई नहीं देता या तुम अंधे हो
लात खाने की आदत तुम्हारी नही जायेगी कहते हुए वह गुस्से से काप गई।
अब न हम होली खेलते हैं न होली मनाते हैं, हम तो बस आध्ुानिकता का चादर ओढ कर अपनी सभ्यता अपने संस्कारो को भूल कर, सुख की खाल पहनते हैं।
तेज चोट लगी क्या, उसने अपने गुस्से को नीचे कर मुझसे पूछा, नहीं चोट नहीं लगी,ऐसे लगा जैसे कोई फूल गालो से टकराया हो, मैने जबाब दिया।
चलो तब ठीक है, उसने धीरे से कहा।
ये बताओं की अब तुम्हें कही रिश्तो की मिठास दिखाई देती हैं, देवर-भाभी की हँसी मज़ाक, जीजा-साली की चुलह, ननद-भौजाई का वह रिश्ता, नंनदोसी-भौजाई का रिश्ता या फिर साले सरहज का रिश्ता।
मुझे तब तो अब हर रिश्ता अंकल-आंटी, पर सिमटता दिखाई देता है।
मिठाथ की जगह थोथा सम्मान दिखाई देता है। समय की कमी के भूत पर विलासिता के ताक पर रखा हुआ अंहकार दिखाई देता है।
वह एक सास में बोल गई।
हा गजगमिनियॉं से बात तो सही कर रही हो, मैने चेहरा घुमाते हुए कहा।
अब तो रिश्तो के हसी मजाक असम्भ्यता की निशानी बन गये हैं। बच्चों को रिश्तो के नाम और अहमित की जगह हम केवल अंकल -आन्टी बता कर खोलता आदर्शवाद सिखा रहे है। त्यौहारों को बस नाम पर ठो रहें है, और अादर्श केवल बयानो में सुन और लेखनी में पढ रहे हैं।
मेरा इतना कहना था कि मेरे सिर पर एक जोरदार प्रहार हुआ मैं गिर पड़ा मैं कुछ समझ पाता इसके पहले गजगमिनियॉं मेरे सीने पर सवार हो गई। हाथो में लिये रंग को मेरे पूरे चेहरे पर मलते हुए कहा कि यही बात तभी से समझा रही हूँ, सोच रही हूँ, कहॉं गया था तुम्हार दिमाग, घास चरने।
मैं ने करवट बदला उसे नीचे गिराया मगर वह संभल चुकी थी और सीधे समाने की तरह दौड पड़ी, मैने उसे पकड़ा और बुरा न मानो होली है कहते हुए पास के तालाब में फेंक दिया, वह तालाब आज सूना पड़ा था, कभ्ाी इस तालाब के किनारे कही युवाओं का तो, कही बूढो तो कही बच्चों का झुन्ड होली के दिन रंग झुडाता दिखाई देता, तो किसी कोने पर महिलाएं अपने रंग को छुडाते हुए अपने नंदोई और देवरो को गालीयॉं सुना रही होती थी।
तालाब ने मेरी तरह देख कर पूछा कहों साहित्यकार साहब कैसे हो, आज तो मुझे सुना देख कर तुम्हें आभास हो गया होगा कि तुम अब सभ्य समाज में जी रहे हो, आधुनिक हो गये हो, तुम्हारे बच्चे उन सब से दूर हो गये हैं, जिनके पास तुम रहा करते थे।
अच्छा है न तुम्हारा ये सम्भ्य एकल समाज, जहॉं तुम्हारी खुशियाें का दायरा छोटा अौर सिमटा हैं, त्यौहारो की मौलिकता, खत्म हो चुकी है।
मैं उस तलाब के सवाल के जबाब के बारे में कुछ सोचता मगर तभी पीछे से आकर मेरी साली और सरहज ने एक लात लगाते हुए कहा कि हम इनको चारो तरफ खोज रहे हैं और ये यहॉं छुपे हुए हैं मैं कुछ सोच पाता इसके पहले वो रंग भरी बाल्टी में ऊपर डाल बैठी, मैं ऑंखे मतला हुआ सामने देखा तो पोरखरे के दूसरे छोर पर तैर कर पहुँची गजगमिनियॉं मुस्कुरा रही थी, मगर उसके कहें हुए शब्द और पोखरे का सवाल मेरे रंग में भीगें हुए शरीर को भी जला रहा था। एक सवाल छोड रहा था कि क्या कभी हम फिर लौट पायेगें अपनी सभ्यता और संस्कृति की तरफ, फिर कभी हम मना पायेगें अपनी होली उसके के रूप के अनुसार क्या हम फिर जी कभी जी सकेगें अपने रिश्तो के साथ, अपने अपनो के साथ, अपने चुलह, हसी ठिठोली के साथ, क्या हम दे पायेगें अपने बच्चों में बो पायेगें सम्भ्यता और संस्कृति का, रिश्तो के अहमित का उनके साथ मिलने वाले आंन्नद का बीच, कहा पायेेगें एक सच्चे सुख का एहसास या फिर शहर की चकाचौध में, रिश्तो के बनावटी पन में, सुखो के बनावटी पन में खो जायेगा सब सु:ख, सच्चा जीवन ।
आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ आपका अखंड गहमरी ।